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॥ श्रीलोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥ (कार्य) नो प्रारंभ करुई. ॥१७॥
॥त्रण प्रकारना अंगुलनुं स्वरूप.॥ अवतरण-आ ग्रन्थमा आगळ वर्णनाता जीवाजीवद्रव्योना क्षेत्रना, काळना तथा भावना स्वरूपमा अंगुलादिना प्रमाणनी विशेष आवश्यकता होवायी तेओनुं स्वरूप प्रथम कहे जोइये? अने तेमां पण अंगुलना मापनी प्रथमज आवश्यकता के कारण-अंगुल प्रमाणनो निर्णय कर्या शिवाय योजन रज्जु आदि प्रमाण थड़ शके नही. तेमज पन्योपम तथा सागरोपमर्नु स्वरूप प्यालानी तया तेमा भरेला वाळोनी कल्पनाथोज थाय छे, अने ते प्यालो अमुक प्रमाण इंडो पहोलो लांवो परिधिवालो विगेरे मापसहित होय छे, ते मापवामां पण प्रथम अंगुलनी जरुर छे वळी उत्कृष्ट संख्यात असंख्यातुं विगेरे गणित पण आगळ वतावाती अनवस्थितादि प्यालानी कल्पनायीज बतायेलं छे, तो ते प्यालाओगें माप पण अंगुलादियो करेला प्रमाणपडेज थाय छे, माटे तेमापण अंगुल स्वरूपनो प्रथम उपयोग छे. माटे ते अंगुल मेदो बताये छे.
मानरगुलयोजन-रज्जनां सागरस्य पल्पस्य ॥ सङ्ग्यासहख्यानन्त-रुपयोगोऽस्तीह यद्भूयान् ॥ १८ ॥ (आर्या) ततः प्रथमतस्तेयो। स्वरूपं किञ्चिदुच्यते ॥ तत्राप्यादावङ्गुलानाम् | मानं वक्ष्ये त्रिधा च तत् ॥ १९ ॥ औतसेधाख्यं प्रमाणाख्य-मात्माख्यं चेति तत्र च ।। उत्से. धाक्रमतो वृद्धे-र्जातमोत्सेधमङ्गलम् ॥ २० ॥ __ अर्थ-आ ग्रंथमां अंगुल-योजन-रज्जुना-सागरोपम-भने पल्योपमना प्रमाण तथा संख्याता-असंख्याता-अनंता(ना प्रमाण) वडे घणीन उपयोग छे ॥१८॥ माटे सौथी पहेलु ते अंगुलादिकन कंइक स्वरूप कहेवाय छे, नेमा पण प्रथम अंगुलनु प्रमाण कडीश. ते अंगुल त्रण प्रकारचें छे ॥१९॥ औत्सेधांगुल-आत्मांगुल अने
१ आयोजनादिना परिमाणन कोष्टक आगळ विस्तारथी ग्रन्थकार घनाघे रखे पण तेथी लौकिक परिभाषामां को कोई स्थळे भिन्नता देखाती होय जेम वैजयरतो कोशमा चार हायन धनुष्य, १००८ धनु ? कोश, २ फ्रोश १ गव्यूस, ४ गब्यून १ योजन, ए कोशलादि देशोनो परिभाषा छ भने मगधादिमा २ गठ्यूप्त १ योजन ए प्रमाणे छ, कौटिलीय अर्थ शानामा १ हजार धनुषनो १ गाउन १ योजन विगेरे, पण तेषी जैन सिद्धान्तोनी परिभाषा अमुक देशीय छ नेम कही शकाय महि, कारण सिद्धांत परिभाषा नियत पक स्वरूपज रहे छे ज्यारे भिन्नभिन्न देशीय परिभाषा कालभेदे परिवर्तन पण पामे छ