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२७) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २१७)
आदौ दर्शनमन्येषां ज्ञानं तदनु जायते । केवलज्ञानिनामादौ, ज्ञानं तदनु दर्शनम् ॥६५॥ अत एव ' सवन्नृणं सङ्घदरि सोण' मिति [ सर्वज्ञेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः ] पठ्यते ) स० २१७) ||
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अर्थ - २७ दीनद्वारम् || सामान्यथी अने विशेषथी एम वस्तु वे स्वरूपवाळी छे, त्यां वस्तुमा रहेका सामान्यस्वरूपलो जे बांध ते अहिं दर्शन कहे है ॥४९॥ जेम प्रथमज देखतां आ घट " एवो जे बोध थाय छे ते दर्शन, अने त्यारबाद जे (द्रव्यथी माटीनो- सुवर्णेनो- रुपानी इत्यादि क्षेत्रथी सौराष्ट्रनो - गुजरान नो - मारवाडी इत्यादि, काळी शरद् हेमन्त शिशिरऋतुनी इत्यादि अगर एक दिवस वे दिवसनी इत्यादि भावथी रक्तवर्णनो, नीलवर्णनो, वर्तुल-लम्बगोळ इत्यादि अनेक स्वरूपे) विशेष स्वरूपनी बोध थाय ते ज्ञान कहेाय है ॥५०॥ आदर्शन ते बंगचार (व्यवहार) नय बड़े कहे, अने विशुद्ध, निश्वय) नयथी नां दर्शनने अनाकार ज्ञानरूपज कल के ॥ ५१ ॥ आ दर्शन ते सरकार (विशेष) बोध या पहेला अवश्य अङ्गीकार कराय हे ( मनाय के ), नहितर कंक है " एका प्रकारनो अस्पष्ट बोध क्यांथो थाय ? ॥ ५२ ॥ बळी ए दर्शन विनापण जो साकार बोध ज धतो होय तो एकज समयमां घटादि विशेष स्वरूपनो बोध यह जाय || १३ || ते प्रमाणे तच्चार्थवृत्तिम कछे के " वळी (उपचारने माननार) व्यवहार नय ज्ञानना (साकार) प्रकारने दर्शन माने हे. अने शुद्ध निश्चय नय तो अनाकारतेज दर्शन माने है, अने आकार सहित (साकार) बोध ने तो ज्ञान छे, अने आकार पटले पर्यारथी पढ़ार्थनो जे
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१ 'आ घर छे' एवं ज्ञानपण साकारस्वरूप दोषाश्री ज्ञान ज से छर्ता आगळ थता विशेष ज्ञाननी अपेक्षाये सामान्य स्वरूप होवाथों ज्ञानमा दर्श नमो आरोप करषों ते उपचार, 'अतद्वति तदारोप उपचार: जेमां से न होय तेमां नैनी आरोप करषो ने उपचार.
२ अर्थात् आकार पटले पदार्थना पर्यायीरूप जे विशेष स्वरूप नं. मिकाय नयथी तो " आ घट छे" एवो सामान्य बोध पण ज्ञानरूप छे. कारणक दर्शनरूपे तो " आ घर छे " एयो निश्चय बोध ( अपायांश न होय पण आ कंडक पथों अर्थामरूप बांध हो शके तेज निश्वयथां दर्शन कही शकाय अने "आ घट " ए निश्चयबोध से व्यवहारथी दर्शनरूप कवाय