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आश परमप्रभावसंपन्न श्री जैनसाहित्यमा आगमरूपे गणाता सिद्धांतोनो साधुवर्ग सिवाय अन्य वर्ग लाम लइ शकतो नथी. कारण के दरेक सिद्धांतना अभ्यासमां कारणभूत पवित्र योगोद्बह्ननी क्रिया छे. जेनो साधुवर्ग ज अधिकारी छे. तेथी दरेक वर्गने तेओमां कहेल भावोनो बोध थाय; ते सार श्रीअंग-उपांगादिमांधी रहस्य प्रहण करीने पूर्वाचार्य महर्षि भगवंतोए नीतत्त्वार्थ-संप्रहणि-धर्मसंप्रहणिप्रवचनसारोद्धार-क्षेत्रसमास-पंचसंग्रह-कर्मप्रकृति आदि ग्रंथो बनाव्या छे. आ प्रथो पण घणा ज विस्तीर्ण-महार्थवाला-गहन-तीक्ष्णबुद्धिगम्य होवाथी ते तमाम सूत्रादिमाथी सार सार ग्रहण करीने गीतार्थशिरोमणि पज्यपाद महोपाध्याय श्रीविनयविजयजी महाराजे आ श्रीलोकप्रकाश नामनो अपूर्व रत्ननिधाननी जेवो प्रथ यनान्यो छे.
जेम कुंचीविना म्हेलर्नु द्वार उघाडी शकाय नहीं, तेम आगमरूपी महेलनुं द्वार उघाडवाने कुंचीसमान गणाता श्री भगवती-काका-नदीमा-कोद्वारसूत्र-जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति जीवाभिगम-वृह क्षेत्रसमासादिमा ते ते स्थले रहेल समजवामां कठीन करणाम्नायादि प्रक्रियाने तथा अन्य पदार्थस्वरूपने सरलरूपे जणाववापूर्वक सुबोध शब्दरचना पण ग्रंथकारे आ ग्रंथमा घणी ज सरस वापरी छे.
___ प्रस्तुत अंथकारे आ पंधर्नु अन्य कोइ नाम न राखता लोकप्रकाश पवं नाम केम राख्यं ? उत्सर-जेना बळे जीवनी उर्ध्वगत्यादि थाय छे तेवा धर्मास्तिकायादि अलोकमां नथी. अनंता तीर्थंकरादि शलाका पुरुषो लोकमा ज थयेला होवाथी लोकनी प्रधानता छे. धर्मसामग्री पण अहीं ज छ, दर्शनादि शुद्धिकारक विशिष्ट पदार्थों पण लोकमा ज रहेला छे; माटे ज लोकमां विशेष वक्तव्य होवाथी लोकप्रकाश नाम राख्यं होय एम संभवे छे. प्रकाशनो अर्थ ज्ञान पण थाय छे, माटे लोकना स्वरूपने जयावनार एवो ग्रंथ लोकप्रकाश कही शकाय.
लोकमां अने अलोकमा रहेला सकल पदार्थो द्रव्यादि चारनी अपेक्षाए चार स्वरूपमा व्हेंचाया छे. स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावनी अपेक्षाण दरेक पदार्थोमा अस्तित्व रहेल्छे अने परद्रव्यादिनी अपेभाए नास्तित्व रहेलं छे, एम दरेक पदार्थोर्नु अस्तित्व अने नास्तित्व-द्रव्यादि चारनी अपेक्षाथी ज जाणी शकाय छे. एथी ज सप्तभंगी आदिनी उत्पत्तिनो पण बोध थइ शके छे. ते चारेनुं निरूपण होवाथी आ पंधना चारे विभागो अन्वर्थ पोतपोताना नामथी फहेवाय छे. १ द्रव्यलोकप्रकाश. २ क्षेत्रलोकप्रकाश. ३ काललोकप्रकाश. ४ भावलोकप्रकाश,