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१७) ॥ लोकप्रभारी स्मृतीय सः ॥ (स! ४७ (२६७) पा एवं सत्योऽनुभागं प्रति हेतवः ॥ २९७ ॥ एतेन यत्क्वचिक्लेश्यानामनुभागहेतुत्वमुच्यते, शिवशर्माचार्यकृतशतकग्रन्थे च कषायाणामनुभागहेतत्त्वमुक्त तदभयमप्युपपन्न, कषायोदयोपबहिकाणां लेश्यानामपि उपचारनयेन कषायस्वरूपत्वादिस्याद्यधिक प्रज्ञापनालेश्यापदवृत्तितोऽवसेयम 1 (सा० ८७) ___ अयं-१७ लेश्याबारम-कृष्णादि द्रव्यना संबंधधी ! स्फटिका जेम कृष्णवादि देवाय से नेमा प्रकारे कृष्णादि लेश्या व्यथी । म्फटिक सरखो आन्मानो जे परिणाम ने परिणामपां लेल्या शब्द प्रयत के ( अर्थात ने परिणाम " लेश्या " पका नामी ओळखाय छे. ) ॥२८४ ए कृष्णादि लेश्याहव्यो मयोगपणानी साथे लेश्यानो अन्वयध्यनिरेक संबंध होची योगान्तगन ले पम जाण ॥ २८५ ॥ ज्यांसुधी (१०गुणसूत्री) कषायनो उदय के न्यांमधी ने कषायोने मगरीने आ लग्याद्रष्यो महाय करनार होवाथी पायोने उपकार करना है. ॥ २८६ ॥ बळी योगान्नगन (देशमा परिणमेला) बीजा न्योमा (-वीला पदार्थोमां, पित्तादिकमां ) कषायने प्रमट करवा संबंधि उपकार करवान सामय प्रत्यक्ष छ २८७ जेपके योगाननगन पित्तदन्यमा क्रोधनो उदय करवामा उद्दीपकपणु(-विशेषजाज्वल्पमान करवानो स्वभाव ) प्रगट जणाय छे जेथी अतिपिस प्रकृनियाको
१ स्फटिक गन्नमा जेना गनो पोगे उतारोप नेत्रा गवाई स्फटिक रग्न देवाय नेम आन्मामा जेया प्रकारनां लेश्यालय उदय या प्रकारमो आन्मपरिणाम शाय र तात्पर्य छ. हि स्फटिकसबधि शम्त देष अने मारक जीवानो अपेक्षा अन्यथा नियच मनकब ने वानसरसो लेश्यापरिणाम होय छे.
२. "यम्मन्ये नसायमन्ययः" "यभावे सदभायो व्यतिरेक:' कारण होते छते कार्य छोय, ते कारणनी माथे कार्य नो अन्यय सम्बन्ध कटेयाय, कारणमा अभावे कार्यनी पण अभाष थाय छे ते व्यतिरेक सम्बन्ध पटल ही मयोगपण तेरमागुण टाणा सधी लेश्या होय (ने अग्मयअनेमयोगपणाना अभाषे चौरमे गुणस्थाने तथा निमपणामा लेश्यानी अभाव रे ते व्यतिरेकालम्बन्ध..
३ मन वचन कायाना योगरूपे परिणाम पामेल इष्प ते योगामार्गत वष्य कहेवाग ( विशेष विस्तार इलंगध्ययनथी जाणयो.)
४ चान पिन अने कफ पत्रण काययोग परिणत होषाथी योगारतर्गतद्रव्य कहेवाय. परन्तु ए योगान्तर्गत बाब अव्य छे. ममे लेश्या पुनको योगा
तिगत अभ्यन्तर द्रव्य गणाय.