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(४३२)।। ज्ञानदार केवलज्ञानचिपयतदुपयोगसम्बन्धिमतभेदविचारनिरूपणम् ॥द्वार] छे के केवलि भगवानने एक समयमां वे उपयोग होय ज. ॥ ५७५ ॥ है अने जो तेम न होय तो परस्पर अन्य उपयोगना उदयने अटकावनार दरेफ उपयोगने कर्मोंनी माफक परस्पर आवारकपणुं प्राप्त थाय. ॥ ९७६ ॥ वळी प. बन्ने उपयोगनी जे सादि अनंत स्थिति कही छे ते पण एकक समयने आंतर अनुदय होवाथी (कहेली स्थिति) व्यर्थ थाय है. (द्वितीयमतं ॥९७७॥ बळी केटलाएक आचार्य कहे छे के अहिं केवलिने सर्व आवरणनो लय थवायी ज्ञान दर्शननो भेद ज नथी. ॥९७८ । कारण के सामान्य मात्र ज्ञानरूप जे दर्शन ते तो ज्ञाननो एक अंश छे तो सर्व ज्ञानीने अंशज्ञान कम संभवे ? ॥९७२॥(इत्यादि युक्तिथी ज्ञान अने दर्शनने एकरूप गणे छे) (तृतीयमतं) कय के के-केटलाक आचार्य भगवतो केवलि निश्चयथी समका जाणे छे अने देखे छे एम कहे छे, बीजा आचार्यों सिद्धान्तना कथनवडे एकेक समयने आंतरे जाणे देखे पम माने छे. ॥१.८०॥ अमे बीजा आचार्यों नो जिनेश्वरने निश्चयथी इशनने नृदं मानता नथी, कारण के केवलिनु जे केवळज्ञान नेज तेमनु केवळदर्शन पण छे, एम कहे छे. || ९८१ ।। अहिं घणी युक्तियोनो समूह के ने सर्व नंदीमन्ननी वृत्ति अने सम्मतितर्क वगेरे ग्रंथोथी जाणवी. हवं प्रस्तुतविचार कहे . प ये उपयोग सिवाय बीजो कोइ उपयोग केवलिने कयो नथी, तो नेओने मतिवगेरे (छानस्थिक) ज्ञाननो संभव केवी रोने होय ? ||९८२॥ इत्यादि विचार अर्थयी प्रायः तत्वार्थभाष्य अने वृत्तिमा कयो छे.॥
अथ ज्ञानस्थितिधा, प्रज्ञता परमेश्वरैः। साद्यनन्ता सादिसान्ता,तत्राद्या केवलस्थितिः ॥९८३॥ शेषज्ञानानां द्वितीया तत्रायज्ञानयोर्लधुः । अन्तर्मुहर्नमुत्कृष्टा, षट्षष्टिः सागराणि च ॥ ९८४ ॥ इयं चैवं॥त्रयस्त्रिंशहाद्धिमानौ, भवो वो विजयादिषु। द्वाविंशत्यब्धिमानान् वा, भवांस्त्रीनच्युतादिषु ॥ ज्ञानदर्शननी अभिन्ननानी घणी युक्तियांद्वारा पुष्टि करो छ. श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण महागजे श्रीविशंपायश्यक महाभाष्यमा समयान्तर उपयोगनु स्वकर अनेक युनियाथी मावीत फयु जे. पूर्वाचार्य गीतार्थ भगवन्तीय वर्णय विधारीनु ते से ग्रन्थामां घणु ममथन करेल. छ. उपाध्यायजी भगवान श्री यशोविजयजीगणिजी महाराजे पृथक पृथक् मयविचारन। अपेक्षनाये रणे विचारन अधिमधाद म्वरूप श्रीझानबिन्दु ग्रन्थमा वर्ण घले छे.