________________
२६९) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २११ (४३१) कार्य मन्ये किंचित् पण करी शकतां नथी, तैम केवळज्ञान प्रगट थये छाप्रमिथक ज्ञानो पण तेवा प्रकारे (अकिंचित्कर) जाणवां. ॥१६॥ ने कारणथी केवलि भगवानमां व्यापार रहित होवाथी निष्फळ एवी पण इन्द्रियोनी (सत्तानी माफक ने छाशस्थिक ज्ञानोनो केवलज्ञाननी साथे सहचारी भाव विरोधवाळी नथी. [एटले के पांचे ज्ञानो साथै रही शक के. ] ॥ ९६७ ॥ बळी बीजा आचार्यों तो एम कहे के के केवळज्ञानीने छाशस्थिक ज्ञानो नन होय, अने नेम कहेवामां जे युक्ति ले ते कवाय छे ॥ ९६८ ॥ पायसद् द्रव्यना अभावथी ( केवलिने ) मनिज्ञान संभवतुं नथी, तेम श्रुननान पण नथी, कारण के ते श्रुतज्ञान मनिज्ञानपूर्वकज होय . ।। ५.६९ । नया रूपी द्रव्यना विश्यवाळ त्रीजु अने चोधुं ज्ञान (अवधि अने मनःपर्याय) पण लोकालांक विषयना मानवाला कलि भगवानने न होय, || ११० ॥ नथ वीमा ( प्रथमना । चार ज्ञान क्षयोपशमजन्य है, अने छेल्ल केवळज्ञान क्षायिक भावन मानेलं छे, ते कारणथी ए (केवलि भगवानमां क्षायोपशमिक भाव न होवाथी) पांच हानीनो सहचारी भाव उचितपणाने पामनी नथो । उचित नथी.) ॥९७१ ।। वळी कर ( कडा-पाल-वासनी चीपोनी सादही) होते छतेज बच्चे बच्चे रहेलां जाळी. यांनो प्रकाश कल्पाय छे, पण मूळधीज कटनो विनाश थये जान्टीयांनी प्रकाशनो व्यवहार । या व्यपदेश ) केम होइ शके ? || ०७२ ॥ बळी सर्व पर्याय अने सर्व द्रष्यने जाणवावाला सर्वाने पण झान अने दीननो उपयोग अनुक्रमेज होय छे. ।। ९७३ ।। ( अर्थात ) एक समय ज्ञान अने वीजे समये दर्शन, प प्रमाणे सर्वझने सदाकाळ एकक समयने आंतरे वने उपयोग होय छे. ॥ ०७४ ।। को छ के-" ज्ञानने विषे अने दर्शनने विषे ए वनमांथो कोइपण एकने विप ( जीवो ) उपयोगशळा होय छ, । कारण के ) सर्व जावाने अने कवलिने पण समकाले (वे ) उपयोग होता नथी. " P मिद्धान्तनो मत कयो. (प्रथममतं ) अने केटलाएक तर्कवाद मानवाकाळा आचार्यों तो एम कह
अपाय-निश्चयांशरूप मतितान अने मद-प्रशस्त अथवा विद्यमान गवां क्रय-मम्यन्यपणे परिणमेला मिश्यात्वनां शुद्ध पुनलो ए वेना मेयीगयी थयेलं सम्यक्त्ययुक्त मतिज्ञान केबलिने नयी इति नात्पर्यः ( तत्त्वार्थ प्रथमाध्यायभाध्यवृत्ति.
२ श्री सिद्धसेनदिवाकर महाराज श्रीवृद्धयादि आदिना विचारानुमार मम्मतितर्क नामना बंधमां कंबलीन पक, भमयमां के उपयोग होयानी तथा