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|| लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा० ५५)
( १३९ ) वास योग्य पुत्रको पहण करी बने वासोच्छ्रासपणे परिणमात्री, तेज शक्तिवडे ते पुलो अलैचीने मूके ते श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिकहेवाय ॥२२॥
प्रश्न- देव नामकर्म भने उच्छूवास नाम कर्मवडेज देह भने छुवानी उत्पत्ति सिद्ध याय के ( थशे ?) तो आ देह पर्याप्त अने उच्छवास पर्याप्तिवडे शुं प्रयोजन ले ? ॥२३॥ उत्तर - अहिं जीवनडे ग्रहण करायलां पुगकोनुं देह पणे जे परिणम ते शरीर नाम कर्मवढे साध्य के ||२४|| अने प्रारंभ करेला अंगनी जे समाप्ति ते शरीरपर्याप्तिवडे थाय छे. ए प्रमाणे साध्य ( कार्य ) ना भेदथी शरीर नामकर्म अने पर्याप्त नामकर्मनो भेद छे, ॥२५॥ ए रीने जीवनी वासोच्छ्वास लग्धि श्वासोच्छ्रास नामकर्मवडे साध्य छे, अने ते श्वासोच्छवास लब्धिनो ( संबंधि ) जे व्यापार करबो ते उच्छवास पर्याप्तिथी साध्य है. ॥२६॥ कारण के उच्छवास नामकर्षथी उत्पन्न वेलीच्छ्रवास लांच्ध होते छते पण ते लधिनो उपयोग करवाने ( व्यावृत करवाने ) जीव उच्छवास पर्याप्तिवंडेज समर्प थाय छे, परन्तु बीजी रीते नहि ॥ २७ ॥ जेमके बाण फेंकवानी विद्यमान शतिने पण ( शक्ति होते पण ) धनुष्य ग्रहण करवानी शक्ति विना सुभट ( बाण प्रक्षेप, शक्तिने ) सफळ करवा समर्थ नथी. ||२८|| तथा जीव जे शक्तिवडे भाषायोग्य पुद्गलो ग्रहण करी, भाषापणे परिणमात्री भने अवलंबीने जे शक्तिवडे बिस ने आ भाषा पर्याप्त कहेवाय. ॥ २९ ॥ तथा जीव जे शक्तिवडे म नोयोग्य पुनलो ग्रहण करी मनपणे परिणमात्री अने अवलंबीने (जेशक्तिवंडे ) चितवन व्यापार करवामां समर्थ थाय ते अहिं मनः पर्याप्तिकहेली छे. ||३०||
२ फाळ भारपानी क्रिया पहेला जेम शरीरनों कईक संकोच प्रयत्न करी फाळ मराय छे, तेम श्वासोच्छ्वासादि पुद्गलोने पण प्रथम तथाविध ( अवलम्वनरूप ) प्रयत्न करी ले प्रयत्नथी उत्पन्न थयेली त्रिमर्जुन शक्तिबड़े विसर्जन कराय छे, ते बिसर्जन थवामां कारणरूप जे प्रथम अवलंबन कहेवाय.
प्रयत्न से
१ शरीरनाम कर्मचटे पुगली शरीररूपं परिणमे, शरीरपर्याप्तिनाम कर्मबडे 'शरीर रखवानी शक्ति प्राप्त थाय अने शरोरपयलि बढे जीव शरीर रचनानी क्रियामां प्रवृत्त थाय.
सिं
शङ्का " शरीरपर्याप्त पटलेलीने शरीर परिणामी श प अर्थ हो तो शहर पर्याप्त अन्तर्मुहर्ते पुण थयाथी शरीर ग्वा
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