SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 596
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ** ३०] ॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (५५९) चारे गुणस्थाने वर्तता जीवो सदैव लोकमां विद्यमान होवाथी तेओनुं अन्तर होत नथी. बोधु गुणस्थान चारे गतिमां सदैव होय छे, पांचमुं तिर्यञ्च अने मनुव्यगतिमां सदैव होय छे. अने छट्टु सात गुणस्थान मनुष्यगतिमां सदैव होय छे, तेथी अन्तर नथी. ( ८ श्री ११ उपशमश्रेणिगत ) उपशमश्रेणिना आठमु अपूर्वकरण, नवमु अनिवृत्तिवादर संपराय, दशमु सूक्ष्मसंपराय अने अगीयारसु उपशान्त मोहवीतरागब्रह्मस्थ गुणस्थान ए चारे गुणस्थानोनुं - त्येके एक जीवापेक्षया जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त होय है, कारण एकवार उपशमश्रेणि कर्या बाद फरीथी अन्तर्मुहर्त बीजीवार कोइ जीव उपशमश्रेणि करे तो ए चार गुणस्थानकोनुं जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त थाय छे. जो के प्रथम आठमु विगेरे गुणस्थान प्राप्त करो नवमा विगेरे गुणस्थानकोये चढी फरी पाछा उतरी फरी श्रेणि करता ते गुणस्थान प्राप्त करवामां अनेक अन्तर्मुहूर्ती थाय छे तो पण अन्तर्मुहूर्तना असंख्यमेदो होवाथी ते सर्व अन्तर्मुहर्ती मळीने पण उपशमश्रेणिना कालरूप अन्तर्मुहुर्तमा समावेश पाने छे. माटे अन्तर्मुहूर्तरूप जे अन्तरकाल कमरे के ते यथार्थ छे तेमज बळी एकवार उपशमश्रेणि प्राप्त करी पाछा फरी क्षपकश्रेणि करे तो पण अपूर्वकरणादि गुणठाणाओनुं जयन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त घट शके छे, छतां सूत्राभिप्राये उपशमश्रेणि करनार ते भवमां क्ष श्रेणि करी शकतो नयी तेथी ने अपेक्षाये क्षपकश्रेणिवाळी प्रकार विवक्ष्यो नथी, अथवा उपशम भावयुक्त अपूर्वकरणादि गुणस्थान अने क्षपकभाव युक्त अपूर्व करणादि गुणस्थानोनी विलक्षणता होवाथी तथा वे वार उपशमश्रेणि करवानुं उभयसम्मत होवाथी उपशमश्रेणिनो प्रकार विवक्ष्यों के, उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुत्र परावर्तकाल प्रमाण जाणवू. अने नानाजीवापेक्षया उत्कृष्ट अन्तर ए चारे गुणस्थानोमा कोsपण जीव न होय तेवो विरहकाल पडे तो उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व अन्तर पडे, वर्षपृथक्त्व गया बाद कोड़ जीव अवश्य उपशमश्रेणि करनार लभ्य होय. ( ८ थी १०-१२ मुं क्षपक गित ) क्षपकश्रेणिगत ए चारे गुणस्थानकोर्नु एकजीवापेक्षया अन्तर पहर्तु नथी, कारण क्षपकश्रेणि करनार ते ते गुणस्थानको पामो गये आत्माओं फरी ते ते गुणस्थान पामवाना नथी, नानाजीवापेक्षया उत्कृष्ट अन्तर क्षपकश्रेणिगत ते चारे गुणस्थानकोमा कोइपण जीव विद्यमान न होय तेत्रो विरहकाल पड़े तो उत्कृष्ट अन्तर छ मासनं पड़े छमास
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy