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॥ मङ्गलाचरणविवेचनम् ॥
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न्तरङ्ग अन्धकार [मोह-अज्ञान नो द्रोह (नाश) करनारी, अमृत झरनारी, अद्भुत ( अलौकीक ) दीवीओ सरखी श्री तीर्थंकर भगवंतनी वाणी जयवन्तो वर्त छे. (सर्वोत्कर्षभावे वर्ते छे.) (४)
विवेचन - दीवानी कळी अमुक (नियत) क्षेत्रमांज पोतानी प्रभाने ते क्षेत्रना पण स्थूल ( सूक्ष्म नहीं), अने अमुकज ( सर्च नहिं ) ते पण सर्वोशे नही पण अमुक भागे, अमुक पर्यायोपेता प्रकाशक यारे श्रीमतीर्थकर देवे प्ररूपेली वाणी स्ववाध्यपणे लोकालोकनो विषय करी लोकालोक सर्वक्षेत्रवर्ती यावर सूक्ष्म सब पर्यायोपेत सर्व पदार्थोंने सर्व स्वरूपे प्रकाशित करे छे. बळी दीवी ज्यारे पोतानी नीचे अन्धकार राखती काजळ झरती छनी मात्र या अव्यवहित द्रव्य अन्धकारनो नाश करे छे, त्यारे प्रभुनी वाणी सर्वत्र प्रकाश करती अभ्यन्तर भायान्धकारतो पण नाश करे छे. ज्यारे दीवी अनि वर्षानारी से, न्यारे प्रभुनी वाणी को दवानलथी तपला जीवोने पण परम शान्ति आपनारी होवाथी अमृत झरनारी छे, वळी अमृत रूपक प्रभुवाणीने आपवाथी अमृततृप्त आत्माओने रज्जु आदि बन्धन, क्षुधा, पिपासा, चकरी: (भ्रमि), घाम, कोढ़, शूल, जीर्णता, ज्वरदाह, चक्षुमां काच पडो, इत्यादि वेदनाओ जेम पीडा आणी शकती नयी तेम प्रभुवाणी तृप्त आत्माओने पण दृढकर्मसन्तान दोरडाओनुं बन्धन, विषयोप्रत्ये असन्तोष रूप क्षुधा, विषयाभिलाष तृषा, संनतपणे भवचक्रभ्रमण, कषायधामनी गरमी, मिथ्यात्व महाकोट, अन्यत्येय शूल, वी संसारसां अवस्थानथी जीर्णता, रागमहाज्वरनो दाह, कामरूप काच पडलथी अन्धता यगेरे बेदनाओं उपद्रव करी शकती नथी जेथी अद्भुत (आश्चर्यकारी अलौकिक ) दीवीओ सरखी प्रभुनी वाणी छे भने ते पाणी सर्व दर्शनका रोनी वाणीओमां पूर्वापर अविरोध, अर्थगांभीर्य प्रभृति भनेक गुण गण विभूषित होइने सर्वोत्कभावे व 11 ( )
पंचेन्द्रियत्वमां श्रवणलब्धि प्राप्त थया छतां पण परमात्मत्राणीनुं श्रवण अ. नन्त पुण्यराशिये पण आत्माने दुर्लभ थे, ज्यां श्रवणनी आटली दुर्लभता छे त्यां तेनी मातिमां तो अनेक विघ्नो ( अन्तरायो ) आवी पडे छे, ते विघ्नोने दूर क वाम अने चिमाथिमां परमनिमित्त अभिमत देवस्वरूप श्रुताविष्ठायिका श्रुतदेवीat स्तवना करवी कृतज्ञ जीवोने आवश्यक है, नेम विचार करी श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज प्रतिपादन करे छे.
कृपाकटाक्षनिक्षेप - निपुणीकृतसेवका ॥ भव्यक्त सवित्री सा जयति श्रुतदेवता ॥ ५ ॥