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________________ (१८) ॥ श्रीलोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः॥ शब्दार्थ-कृपारूप कटाक्षो (सम चच बेष्टा विशेषो) फेंकवायी निपुण बनान्या छे सेवको जेणीये ते भक्तजीवोनी प्रकटमाता श्रुतदेवता जयवन्ती वर्ने छ. भक्तजीवोने निपुण बनावत्रामा सर्वोत्कर्ष भावे वर्त के. (५) विवेचन-अहिं श्रुतं देवी से बुताधिष्टायिका देवी समजबी परन्तु उपरमा शोकमा वाणीनी स्तुतिमां वर्णवेल होपाथो तेमज प्राचीन महापुरुषोना वचनधी धृतरूप देवी अहीं जाणवी नहीं. थुतदेवीनी आराधनाथी अनेक महापुरुषोना स्प्रान्तो कविस्व, वित्त्व शक्ति मळवषाना संबंधमा सुप्रसिद्ध ! (५) उपर बताच्या प्रमाणे अभीष्ट अभिमत देवोना नमस्कार-आशी:-वस्तुसंकीर्तन-स्तुति आदि प्रकारवाळां मंगलो प्रतिपादन करो इवे पोताना परमोपकारक विद्या, बोध, सुचरित प्रभृतिगुणोना परमहेतु अधिकृतदेव स्वरूप गुरुनी स्तवना रूप मंगल करतां युगमधान तुल्य शासनप्रभावक स्वदेशना प्रमावे अकल्परनृप जेवा सम्राट्ने प्रतिबोध आपी दयाडिडिम वगहावत्रा पूर्वक तीर्थसाम्राज्यने उपतिमा लावनार श्रीहीरविजयसूरीश्वरजी महाराज- स्तुत्यात्मक मंगल कर छ.! जीयाजगद्गुरुर्विश्व-जीवातुवचनामृतः ।। श्रीहीरविजयः सूरि-र्मदीयस्य गुरोर्गुरुः ॥ ६ ॥ शब्दार्थ-जगतमां (सर्वने) जोवनौपथरूप छे वचनामृत जेमोनु ते मारा गुरुना गुरु (दादा गुरु) जगन्ना गुरु ( जगद्गुरु विरुदधारक) श्रीहीरविजयमरीश्वरजीमहाराज जयवन्ता बों. (६) विवेचन-धीमान 'विजयदानसूरीश्वरजी' महाराजना पहप्रभाषक श्रीमान् हीरविजयसूरिजी चरमतीर्थकर प्रभु 'श्रीमहावीर' शासनवर्ति जे श्रमण गण प्रथमपट्टाधिपति पश्चम गणधर, 'श्री सुधर्मा' स्वामिथी 'निर्गन्ध' नामे प्रसिद्धि, पाम्यो हनो, तेज श्रीश्रमण संघ, अनुक्रमे धीधीरप्रभुना निर्वाणथी श्रण सफाबाद नवमी पाटे थयेल सूरिमन्त्रनो कोटिशः जाप करनार 'श्री सुस्थितसरि' अने श्रीसुप्रतिवद्धवरि' आचार्योथी'कोटिक' वीरनिर्वाणधी अठा सकामां पंदरमा पट्टाधिपति 'श्रीचन्द्रसूतिथी चन्द्र' तथा तेज श्रीचन्द्रसरिना शिष्य सोलमापट्टप्रभु श्री 'समन्तभद्र' मूरिथी 'वनवास' पीरनिर्वाणथी १४१५ पटले विकमधी ९५४ वर्षे पांत्रीसमापट्टपति ' श्रीसर्वदेव' सरिथी 'वड (बट, अने श्री वीरनिर्वाणधी ५७५५ एटले विक्रमथी १२८५ वर्षे चुंवालीशमा पट्टनायक जेओश्रीने 'मेदपाट' महीपति महाराणा 'श्रीजैवसिंहसी' ए अनेकशा विगंवरादि वादिओने धादमा होरानी माफक अमेध रहेवाची 'हीरला' पषु विरुद् समयें हन्न, अने युग प्रधान तुल्य से श्रीमान् अगचन्द्रसरिष अभिग्रह पूर्वक यावज्जीव आचाम्लादि तीन
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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