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१७४ ) ॥ लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० ८९) (२४३ ) नथी. ए कारणथीज भावरानिए नारक अने देवने छ ए लेउयाभो होय है, ॥३१॥पूर्वाचार्योग कार्यु के के-"देव अने नारकने ने द्रव्य लेश्याओ अवस्थित कही थे, परन्तु भावपराष्टत्तिथी नो देव नारकर्मा पण छ ए लेश्याओ होय छे" (बृहत्संग्रहणी.) ए कारणधीज दुष्ट लेख्यावाळा नारकीओने पण नेजोलेश्यादि शुभ लेश्याथी उत्पन्न बनारो सम्यक्त्वनो लाभ घटी शके 2.॥३१।। काले के उपरनी प्रण(नेजो लेश्यादि लेश्याओमां सम्यक्त्वनो लाभ पनिषद्यमानपणे(उम्पन्न थनी वस्वते होय,अने परिपसरणाशीजन्य थया गछी)तो'सम्यक्त्व लाभ) छमांनी कोरपण लेश्याए होय ॥३२॥ अने ए कारणथीज नेजोलेश्यावाळा संगप देवमां कृष्णलेश्याविर अभूम लेख्या) यी धना भीवीरभगवानने उपसर्ग कस्वापणुं संभषे छे. (अर्थात् शुभ लण्याचालो देव पण अशुभलक्ष्याने उनिन कार्य कर के.) ३२१ तथा सर्वथा स्वरूपनो त्याग करवायी नियंच अने मनुष्यनी लेश्याओ रंगर्मा बोळेला वखनी माफक नापणुं पामी जाय छे, १३२२॥ एकारणथी तियेचमनुष्यनी लेश्याओ अन्नमहर्न मात्र अवस्थिम रहे के भने स्यारवाद लेश्या परावृत्त थइ जाय छे (सक्या बदलाइ जाय छे.. ॥ ३३ ॥
बहुधाऽऽसा परिणामस्त्रिधा वा नवधा भवेत् । सप्तविंशतिधा चैकाशीतिधा त्रिगुणस्तथा ॥ ३२४ ॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतत्रिविधो भवेत् । प्रत्येकमेषां स्वस्थानतारतम्यविचिन्तया ३२५ भवेन्नवविधस्तेषामपि भेदविवक्षया। सप्तविंशतिधा मुख्योऽप्येवं भेदैस्त्रिभित्रिभिः॥३२६॥तथाहुः प्रज्ञापनायां॥ कण्हलेसा णं भंते कतिविहं परिणाम परिणमति?, गोयमा!, तिविहं वा, णवविहं वा, सत्तावीसतिविहं वा, एकासीतिविह बा, तेवालदुसयविहं वा,
१ सम्यकत्वनी उत्पमि सेजो वगरे शुभ लेश्यामां होय , माटे प्रतिपक्ष मानपणे ( अङ्गीकार करवा पणे ) उपरनी ३ लेश्या होय.
२ प्रथम मम्यक्त्व उत्पन्न थावाद मम्यक्त्व जे घधारे काळ रहे ते पधुकाळमा रहेलु सम्यक्त्व पूर्ण प्रतिपन्नभावे कहेयाय,
३ तात्पर्य पजके सम्यकाध उत्पन्न धना पण शुभ लेश्याज होय अने । उत्पन्न थयाधार (टको रखेला सम्यक्त्यमा) छ मांनी कोरपण लेश्या होय,