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॥ लोकप्रकाशे प्रथम सर्गः ॥ (सा. २७) (८०) __ अर्थ लोकने अन्ते (किनारापर) रहीने कोइ देवपण ( मनुष्य, मिथचनी तो वातज शी?) अलोफमा पुगलनी अने जीवनी गतिनो अभाव होपाधी ( अलोकमां ) पोतानो हाथ विगो लगाववा सपर्श थी॥ ३४॥ ते गरमी फा छ के-“हे भगवन् ! महाऋडिवाळो यावत् महेश नाम (महा स. मर्थस्वरूप)वाळो कोइक देव लोकने अन्ते उभी रहोने अलोकने विषे हाथ अथवा पग यावत् साथल (विगेरे कोइपण भंग ) संकोचवा अथवा प्रसारवाने समर्थ छे? उत्तर-हे गौतम! ए अर्थ(ए कार्य करवाने) समर्थ नधी." ए प्रमाणे श्री भगवतीजीना १३ मा शतकना ८ मा उई। शामा कथु छे. [ आकाशास्तिकायना च्यादि पांच विचारो]
वास्तविक रीते तो आकाश द्रव्य द्रव्यधी एकज अने सर्वच्या छे, परन्तु धर्मास्तिकापादिफनी साथे रहेवास्प उपाधिवडे ( उपचारथी) (लोकाकाशअने अलोकाकाश एप) ये मकारर्नु पयेलु छे. ॥ ३९ ॥ ए पाकायद्रव्य लोका. लोकप्रमाण होबाथी क्षत्रधी अनंत छे. परन्तु लोकाफाशनी अपेक्षाए आकाश द्रव्य असंख्य (असंख्यपदेशात्मक) पण कडेवाय, ॥४०॥ तथा आकाश द्रव्य काळयी शाश्वत, अने भावधी वर्णादि रहिस छे, तया ते द्रव्य गुणथी अवकाश आपवाना स्वभाववाल श्री जिनेश्वरोए कहेल छ. ॥ ४१ ।। साकरने जेम दूध अने अग्मिने अवकाश आपत्रामा जेप लोखंदनी गोळो (हेतुभूत छ ) तेम सर्व पदार्थोंने (धर्मा-अधर्मा०-जीव-अने पुद्गल ए चारने ) अवकाश बापवायां हेतुपणाने धारण करना(आकाशद्रव्य)? ॥४शा (अर्थात् ए चार पदायने अवकान आपापा कारणरूप छ.-( अहिं लीक युग्म होगाथा वे श्लोकनो भैगो अर्थ करथी जोइप तेने बदले आ अर्थमा युग्मनी पद्धति नहिं राखी बसे लोकमो अर्थ छूटो पाडी दोधेल छे) जे कारणथी ( श्री भगवतीजीना तेरपा शतका) कहथु छ के-[आ स्थळे भगवतीजीना पाठनो भावज ग्रंथमा गुथ्यो छे.] ___ एक फाशपदेश परमाणु आदि एक द्रव्यवहे पण पूराय छे, तेज थे द्रश्यबडे (बे परमाणुचडे ) तया त्रण द्रव्यचडे पण पुराय के. ॥ ४३ ॥ वली ते एफ आकाश प्रदेशमा १०० द्रव्य (परमाणु) समाय छ, तथा सेंकडो क्रोड अने इजारोकोट द्रन्यो (-परमाणुओ ) पण समाय छे. ।।४४|| आकाशनो अवकाश आ. पकानो स्वभाव होवार्थी, अने पुद्गलोना परिणामनी विचित्रताथी उपर कहेकी सपळी वात युक्तिवाळीन छ, ॥ ४५ ॥ ए पातनी विशेष प्रनीति माटे अनुक्रमे