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२०) ॥ श्रीलोकनकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० २४० (५७९) येन मनोद्रव्याणि मन्यते स मानस इति, कायव्यापार एवार्य व्यवहारार्थं त्रिधा विभक्त इत्यतोऽदोषः (सा. २४०) ॥
अर्थ-प्रश्न-भाषा अने वचनयोगमां एवो शुं कोइ तफावत छ ? के जेथी सूत्रमा भाषानो अधिकार वचनयोगधी अलग वणवेलो के ! ॥५२॥
उत्तर-युज्यते-जोडाय ने योग कहेवाय एवी व्युत्पत्तिना योगथी भापाने प्रवर्तावनारो एवो जीवनो जे प्रयत्न ते वचनयोग कहेवाय ।। ५३ ।। अने भाषापणे परिणमेली भाषायोग्य द्रव्यनी ( पृद्गलनी ) जे संहति ( समूह ) ते भाषा कहेवाय छे, ए हेतुथी भाषा अने वचनयोगनो भेद प्रगट रीतेज छे. ॥५४॥ श्री आवश्यक सूचनी बृहबृत्तिमा कर्जा ले के-" काययोगवडे ( भाषावगंणाने ) ग्रहण करे अने वचनयोगवडे बहार काहे " अहि कोश्क एवो पन करे छ के-रयां फाययोगवडे ( भाषावर्गणाने ) ग्रहण करे ने तो युक्त छे, कारणके वे काययोग आत्माना व्यापार रूपछे माटे, परन्तु वचनयोगवडे बहार काहे ते केवी रीने ?, अने वचनयोग ते !, शुं व्यापारने पास थयेली वाणी (तेज बचनयोग ?. के बहार निकळवामां निमित्तभूत कायानो प्रयल ते वचनयोग छे?, जो पथमनो विकल्प लइये के (व्याप्त थयेली वाणी) ते वचनयोग छे,तो ते विकत्य अयुक्त छे.कारणके ते वाणीने योगपणानी अनुपपत्ति छ (वाणीने योगपणु घरतुं नथी ). वळी केवळ वाणी जीवनो व्यापार नथी. कारण के ते वाणी तो रसा. दिनी पेठे मात्र पुदलपरिणामरूप छे. अने योग तो शरीरवाळा आत्मानो ग्यापार छ, अने ते दाणीवडे भाषा ( पुद्गलो) षडार नीकळे नाहि, परन्तु पाणी पोतेज निकळे छ एम पहेला कहेल छे. इवे जो बीजो पक्ष अंगीकार करीए तो ते कायानो व्यापारज हे ते कारणयी “कापयोगवडे करीने { भाषा पुगलोने ) बहार कादे" ए भाव प्राप्त थयो अने ए भार सो इष्ट नयी (माटे बचनयोग बढे बहार का एम कधु ने केवी रीते युक्त गणाय ? ) उत्तर- अभिप्राय नहिं जाणवायो, अहि तमोर कधु तेम नथी कारण के अहिं वचनयोग अने मनोयोग ते काययोग विशेषज के कारण के जो तेम न होप तो कायाना व्यापारथी शून्य ( रहिन ) एषा सिदनी पेठे तेनो (मन वचनयोगनो) काययोगना अभाये) अभाव थाय. ते कारणयो [ए तात्पर्य छे के ) आत्मानो शरीरद्वारा व्यापार प्रव] छते जेना वडे (शरीरना जे व्यापारवडे) शब्दपुद्गलोर्नु ग्रहण करे ते व्यापार काययोग कहेवाय, अने जे शरीर व्यापारवडे ने शन्दपुद्गलोने बहार काढे ते वचनयोग कहेवाय. नेवीन रीते जे शरीर