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________________ (३१) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २३६) (५२७) णाय से के क्षपकश्रेणिमां निद्राशिको उदय नथी, घृणिकार पण कडे छे के"दुधरिमलमये एवं मिहादुगं खीणं उदयाभाषाओ", याकोनी चौद प्रकृ तिओनो चरमसमये कय पाय निश्वयम ये ते समये अगे व्यवहारनवे ते पछीमा अनम्रमये सर्वस्वरूपे सर्वलोकालोकनु परिपूर्ण त्रिकालस्वरूप प्रकाशक केवलज्ञान प्रगट बाथ पटले सयोगि केवल गुणस्थान पाये तात्पर्य पज के अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानो पैकीनो प्रथम ( बार्थभनाराच ) संघयणवाळो सुविशुद्धपरिणामी क्षपकर्मणिमां बडेलो अनुक्रमे वारमा गुणस्थाममा चरम समयसुधोमां सर्वमस्त्री मोहनीय २८. ज्ञानावरणीय - २ दर्शनाबरणीय - ९, अन्तराय - ५. आयु-३, नामकर्मनी-१३. प प्रमाणे ६३, प्रकृतिओ म्रपीने केवलज्ञान पामे, गुणस्थानक्रमारोहमां क्षपकक्षेणिकम आप्रमाणे छे-धरमश रीरी बोथे गुणस्थानके नरकायु (संभवतः ) क्षय करे, पांच मे तिर्यगायु क्षय करे, सातमै देवायु, अम्लानुबन्धि चतुष्कम, अने दर्शनत्रिक ३ प आठ प्रकृति क्षय करे, आठमे शुक्लध्यानमा पहेला पायामां प्रवेश करें, ध्यान विधि विस्तारथी ध्यानशतकवृति विगेरेथे जाणो, नमाना पहेले भागे नामकर्मनी १३ अने त्यानधित्रिक प सोळ. प्रकृति खपाने, पीजे भागं कषायाष्टक, बीजे भागे नपुंसकवेद, बोथे भागे खीद, पांचभागे हाच ट्रक, छट्ठेभागे पुरुषमेष, सातमे भागे संवलनक्रोध, आटमे भागे नमान नवमे भागे संचलन मायानो क्षय करें. त्यारबाद बादरलोभने सुक्ष्मरूप बनावी दशमे सूक्ष्मलोभन क्षय करे, बारमे गुणस्थाने शुक्लध्याननो बीजो पायें ध्यान बारमाना उपायसमये निद्राणिक भने चरमसमये सामावरणीयादि चाँद प्रकृति खपाम्रो केवलज्ञान पामे आब वृहद वृति- उत्तरावृति विगेरेमां आटलो विशेष छे. (१) अमन्तानुबन्धिनु अवशिष्ट दलीयुं मिध्यात्वमां प्रक्षेप करे, पज्ञ प्रमाणे सर्वत्र पूर्वप्रकृतिनु अवशिष्ट दही उत्तरप्रकृतिमां संक्रमाचे, कार्यप्रमिथकोना विचार प्रमाणे १ मूलप्रकृतिथौ भिन्नप्रकृतिओलु संक्रमण न थाय. आयुष्यनुं परस्पर सं कमण न याथ तथा ३ दर्शममोहनीय अने चारित्र मोहदयतुं पण परस्पर संक्रमण न चाय, जेथी चारित्रमोहनीय प्रकृतिरूप अनन्तानुग्रम्धीनु दलीयु दर्शनभीनीरूप मिथ्यात्वमां संकमा नहि. (२) जैम पुरुषवेदे मंणि अंगीकार करें छते पोतानी पुरुषवेद पाछळथी खपावे तेभ नपुंसकये तथा श्रीवेदे प्रेणि स्वीकारवामां पाळधी पोतपोताना बेद खपावे (३) क्षीणमोह धारमा गुणस्थानमा उपास्य समये निद्राद्विकनी साथे देवगति विगरे केटलीक नामकभी प्रकृतिओ पण खपावे छे इत्यादि विशेष स्वरूप प्राचीन ग्रन्थोधी जाणवु. ॥ इति क्षपकश्रेणिविधिः ॥
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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