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________________ (५२६)।गुणस्थानद्वारे द्वादशक्षीणमोहगुणस्थानप्रसङ्गतः अपकणिप्ररूपणम्।।(हार अईि जे १४८ प्रकृनियो मनामा हती नेमांयी ४६ नो क्षय थराथी ॥ ३९ ॥ दशमे गुणस्थाने १०२ प्रकृतियो वाको रही अने (लोभना क्षयथी) १२ माः गुणस्थानना उपान्त्य समयमुधी १.१ प्रकृतियो वाकी रद्दी ॥ ३० ॥ अने [पुनः निद्रा २ नो क्षय थतां क्षीणमोहगुणस्थानना अन्त्य समये सत्तामा ९९ रही, अने १४ नो क्षय थवाथी अहिं सयोगि गुणस्थाने ८५ महतियो बाकी रही, ॥४२॥ स्वारवाद अयोगि गुणस्थानना उपान्य समये ७२ प्रकृतियोनो क्षय थाय अने अयोगिना अन्य समये शेप १३ प्रकृतियोनो क्षय थाय. ॥ ४२ ॥ अर्हि भाध्यकार महाराजे कधु छेके-"निश्चय नये केवळज्ञाननी उत्पत्ति ( विशेषा. भाष्यणा० १३३४) (क्रियाकाल अने निष्ठाकालनो अभेद होचाथी) शानावरणना क्षय समये छे, अने व्यवहार नय कहे छे के ते आवरणना शयथी अनन्तर समये केवलज्ञाननी उत्पत्ति छे ।।४३), क्षपकश्रेणिनी स्थापना अहीं जाणरी (आगळ व नाबी छ) आप्रमाणे यारमुक्षीणमोहवीतरागछमस्थ गुणस्थानक जाणवू. १ अनन्तानुबन्धि ४-दर्शनमोहनीय ३-आयुष्य ३. स्न्यानपित्रिकादि १६मध्यमकवाय ८-नोकषाय ९-मयलन क्रोधादि ३. ए नेतालीश प्रकृति २ वेदनीय-१ मनुष्यत्रिक- पंचेन्द्रिय १ घस-१ सुभग-१ आदेय- यश-र पर्याम-३ बावर-१ तीर्थकर-ए-ने उच्चगोत्र-१ प तेर प्रकृति. के अनुश्यषती प्रकृतिओने घरमसमये स्तिवुक मक्रमे करी उदयवती प्रकृतिओमां प्रक्षेप करें (मफमा) अनं परप्रकृति स्वरूपे भोग एटले चरमसमये ते अनुदयवतीन दलीयु स्वम्धरूपे होतु नथी पण परप्रकृतिम्वरूप होय छ, पज प्रमाणे आगळ पण अनुदयवती प्रकृतिओनी समयन्यूमता विद्यारवी ते क्षीणकषायादा बसु पण अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जाणषी, इवे ग्यारथी मांडीने ते सोळ प्रकृतिमा स्थितिघातादि अटक्या वाकीमा कर्मना तो प्रवतेज ने, निद्राहिक हीन ते सोळ कर्म उदय अने उदीरणाथो वेवतो यावत् समयाधिक आषलिकामात्र शेष रहे त्यांसुधी जाय, त्यांची उदीरणा निवृत्त था न्यारपछी आपलिकामात्र काल सुधी केवल उदये करोनेज़ भोगचे यायल् क्षीणकवायना कायनो विचरम (उपान्त्य) समय आये ते उपान्त्यसमये निद्रानिक स्वरूप सत्ताथी क्षय पाम्यु, निद्राद्रिकनी उपास्यसमये भय यवाना हेतु पटलोज के-"उदप पुण खबगाणं चत्तारि उ. मणापरणे' ए सप्ततिका भारुपना पचनी अपकणिमा निब्राहिकना उदयने निषेधर्छ, माटे उपास्त्यसमये निवाहिक स्तिघुकर्मक्रमे अन्य (दर्शनघतष्क) मां संक्रमावे पटले स्वरूपसत्ता अपेक्षाये निवाधिक अय पाम्यु, भन में उदयवतो प्रकृतिओ होय तनो नो प्रथम संक्रम न होवाथी अन्यसमयसुधी म्वरधरूपे दहीथु देखाय छ, अंने मिन्द्राद्विकर्नु दलीयुं तो उपाय समये क्षय पाम्यु, माटे ज. - - - --
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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