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________________ : (५१०) । उपशान्तमोहमुणस्थानप्रसङ्गत उपशमश्रेणिनिरूपणम् ॥ (द्वार मिथ्यात्वे पण जाय ए आश्रय छे. ॥ ८॥ अने पतित थयेलो जीव ते भवमा मोक्ष न जाय, भने कोइक जीव उत्कृष्टयां अयं पुलपरावर्त सुधी संसारमा रहे (परिभ्रमण करे). ॥९॥महाभाष्यमां कथु छ के-"जो उपशान्त कषायी जीव - - - .- -- कम परमाणु सर्य जीव करता अनन्त गुण ग्माणुये युक्त होय . बीजो कम. परमाणु एकभाग अधिक रसाविभागो आपछे, तेथी योजो बै अधिक रसा. विभागो आपे ५ प्रमाणे एक एक अधिभागनी आगळ आगळ वृलिये म्यांसुषो जयु के यावत् छल्लो परमाणु सिद्धना अनंतभाग अधिक रसाविभागों मापे, नेमां अघन्यरसपाळा जेटला परमाणुओ अगतमा होय सेओनो समुदाय समानजातीय होषायी पका पहेली)सर्गणा कहेवाय छे. योजा एकाधिक रसाधिभागयाळा परमाणओनो समुदाय बी जी षर्गणा, वे अधिक रसाविभागवाला पर• माणुभोना समुदायनी प्रोजी वर्गणा प प्रमाणे पक पक रसाधिभागथी वधता परमाणुओना समुदायनी वर्गणाओ कहेता कहेता घर्गणाओनी मांया अभ. व्योथी अनग्तगुण अने सिद्भोगा अनन्तभाग मम्य संख्याप्रमाण जाणवी. अहीं उत्तगेमरवृद्धिथो वर्गणाओ नाणे स्पर्धा करती न होय तेथी आ वर्गणा ओनो समुदाय ते 'म्पर्धक कहेयाय छे. आ स्पर्धकनी छल्ली वर्गणामां आवेला रसपी आगळ पक पक रसाषिभागनो निरन्तर वृद्धिये षधतो रस मळतो नथी. परन्तु सर्ष जीव करता अनन्त गुण रक्षाविभागोये बधतो रस मळे छ. त्यारपछी सेज ( उपर यताव्या स्पर्धकना ) झमे करी त्यांची मंडी पीर्जु स्पर्धक कहे, पज प्रमाणे त्रीजुं स्पर्धक कहेवु, पाषत् पजरीते अनन्ता स्पधेको थाय छै. आ स्पर्धको जीधे पहेला करेला होवाथी पर्यस्पर्धको कहेषाय छे, हवे इमणां तेज स्पर्धफोमांची दरेक समये दलीय ग्रहण करीने तेनु अस्यरत होमरस पणु पमाडीने अपूर्व स्पर्धको बनावेछे. अनादि संसारमा - मण करता आ जोधे कोइपखत पण चम्धने आश्रयी आवा स्पर्धको घनाव्या नथी, परन्तु हालमांज अत्यन्त विशुशिना योगे आषा अपूर्व स्पर्धको बनावेछे. माटेज आन अपूर्वस्पर्धको कहे वार " हवे जा अश्वकर्ण करणाद्धा पूर्ण यये ते किट्टीकरणाद्वामा प्रवेश करो, हवे अहीं किट्टीकरणाद्वामा पूर्वस्पर्धको अने अपूर्वस्पर्धकीमाथी दलीयु पाहण करी दरेक समये अनन्तो किट्टीओ बनावे ठे, किट्टीओनु म्यरूप आ प्रमाणे—पूर्वस्पर्धक अन अपूर्वस्पर्धकोमांयी वगंणाओ लाने तेने अनन्तगुणहीन सपणु पमाडीन ते वर्गणाओने मोटा अग्तरास्टपणाये स्थापन कर, जेमके जे वर्गणाओना अनुभागभागी अनन्नान न्त छनां पण असरकल्पनाये ते अनुभाग भागोनी संख्या एकसो, एकसी एक अथवा एफसी के पत्रोरीत कमथी अने अधिकरसस्परूपे हती तेज वर्गणाओना अनुभागभागोमो संख्या पांच पदर पचीस प.प्रमाणे हीन हीनरलपणे अन मोटा अरतरालपणे स्थापयी वे किट्टोकरणाद्धामा चरम समये एक साथ अप्रत्याग्न्यानावरण
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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