SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 614
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३९) (५७७) स्वरूपने अनुसारे चितवन करई से सस्थमनोयोग ॥३८॥ जेमके सत् भने असा स्वरूपवाळो [ स्त्रद्रव्यादि अपेक्षाए सत् ने परद्रव्यादि अपेक्षाए असद एचो] जोर शरीरमा व्यापीने रहेलो छ, अने पोताना कतकर्मनो भोक्ता [ भोगवनार ] छे, इत्यादि(सत्स्वरूपाचितवन करवु ते १ सत्यमनोयोग कहेवाय. ॥३९॥ बळी मम थये छते अथवा परस्पर विरुद्धविचार (विवादोथी या स्वभावथी पदार्थाने विष [पदार्यविषयक सर्वज्ञ मतथी विपरीत विचाराय ते २ असत्यमनोयोग॥४०॥ जेमके जीव नयी-जीव एकान्ते नित्य छ वा अनित्यज छ अथवा (कायायी। म्होटो (सर्वव्यापि) छे-अथवा कायाथी न्हानो(अणुस्वरूप -श्यामाकतन्दुल प्रमाण)अकर्ता के गुणरहित के-इत्यादि जे चितवव॒ते असत्यमनोयोग कहेवाय॥४१॥ कंइक सत्प भने कांक असत्य एम जे बन्ने धर्मयुक्त होय ते व्यवहारनयनी अपेक्षाथी ३ सत्यमृषा (मिश्र)मनोयोग छे. ॥ ४२ ॥ जेम अन्य वृक्षो सहित बीमा अशोकनां घणां झाड होते छते आ अशोक वन के इत्यादि जेचितवq ने मिअंमनोयोग ॥४३॥ केटलाएक अशोकक्ष होवाथी सत्यपणुं अने बीजां वृक्षो पण होचायी । ते नहि कडेवायी) असत्यपणु पण छे. ॥ ४४ ॥ बळी निश्चयनयनी अपेक्षाए तो ए असल्पज छे का. रणके एमां विचार करेला स्वरूपवाळी वस्तुनो अभाव छे. ॥४५॥ वळी पदार्थनी (अमुक रूपे है एवं) स्थापन करवानी इच्छा विना स्वरूप मात्र- जे विचारयुं ते पूर्वे कहेला (सत्य अने असत्यना) लक्षणो नहि घटवाथी ते विचार सत्य नयी तेम असत्य पण नयी ते ४ ( असस्याऽमृषामनोयोग. ) ॥४६॥ जेम चैत्रनी पासेयी गाय मांगवी छे, तेनी पांसेयी (अथवा त्यांथी ) घडो लाववो छे, इत्पादि विचार फरवो ते असत्पामृषा नामनो मनोयोग छ ।॥४७॥ व्यवहार नपनी अपेक्षाएज ए (असत्याभूषा ) भेद जुदो गणाय छे, अने निश्चयनयनी अपेक्षाए तो ए मैद सस्यमां के असत्यमां अंतर्गत थाय छे ।। ४८ ॥ ते आ प्रमाणे-"गाय मागवानी छे" इत्यादि विचार जो दंभ-कपटवटे कों होय तो असत्पमा अंतर्गत याय, अने जो स्वभावयीज (सरळताथी) कर्यों होप तो पुनः सत्पमा अंतर्गत थाय ॐ ॥४९॥ १ अर्थात् अशोकषन कहेवामां षस्तुना यथार्थ स्वरूपनो विचार करेलो नयी माटे सत्यासत्य कषाय अने वीजा वृक्षोनो अभाष नथी मात्र अशोक भनी अधिकता होवापी अशोकमी मुख्यतार बमर्नु नाम अशोकवन कवाय एषा संस्कार पूर्वक जो " अशोकवन छ " पम चितववामां आवे तो ते सत्यममोयोग कवाय, कारण जिनेश्वरी पण पवा बनने अपेक्षा पूर्वक अशोक षन कहे थे, ने तेमने मिश्रयोग मथी.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy