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________________ ॥ मालाचरणविवेचनम् ॥ आपना मयनमा रहेल अत्भुत श्रीपार्श्वप्रभुनु यिंच मने आपो. के जे विना लाजले करी अरामस्त मार सैन्य स्वस्थ कर्क! पद्मावती उत्तर आपनां बोल्या. श्रीपार्शप्रभुनी प्रतिमा तो अहीं नहीं आये, परंतु ते शिवाय जष्टुं नमार सैन्य स्वस्थ कम, पळी पण योल्या जरासन्धन सेनाधिपति सहित वांधी अण. पारमा तमारी पांसे लाची आयु विगेरे तमा जे जे इए. होय में सर्व संपादन कर, परन्तु श्रीपार्श्वप्रभुनी प्रतिमा मारा स्थानमाथी लावघाने मने उत्साह थतो नथी. त्यारे बली कृपण बोल्या. हे भगवति ! आप कहेलं मर्य सत्य के. आप ते सर्व करवाने समर्थ छो. परन्तु तेम करवाथी अमारामां कांडपण पुरुष फार नयी ते ज जणाय भने मात्र लोकोमा अपवाद ज थाय जे 'देवताए सर्वे शत्रुपराजयादि कार्य कर्यु पण यादवोमां कांइपण शक्ति मथी.' माटे जो आप प्रसन्न अ हो तो मने पार्श्वप्रभुनी प्रतिमा आणे के जेधी हुँ आफ्ना प्रसादे करी पोते ज संप्राममा शत्रुने पराजय पमाई. कृष्णना अन्याग्रह अने भनिथी तुष्टमान थपेला देवी पावती श्रीपार्श्वप्रभुनी प्रतिमा लाची आपी स्वस्थाने गया, हवे कृष्णे श्रीपाचप्रभुनी प्रतिमानी विधिपूर्वक स्नानादि पूजा करी स्नात्रपाणीथी सिञ्चन करायेल समन सैन्य निद्राथी प्रबोधनी माफक स्वस्थावस्था पाम्यु. याधा मैन्य मान्त था, हम प्रतिविशुजरासन्धनो चक्रवडे शिरच्छेद कयों, जयस्थल मेदिनीना प्रदेशमां वासुदेवे, भीपाप्रभुनी पूजा समृद्धि माटे मिजनामथी गुणमिष्पन्नमामवाला शंखेश्वरनगरनी स्थापना करी कारणके कृष्ण शंखना ईश्वर छे, तेमज घळी आ नगर शंखपुर एवं पीजु नाम पण छे. कारण के ते भूमिमां कृष्णे शत्रुसैन्यने पास उपजावया शंख पूर्या छतो, आ नगरमां पनापती समर्पित श्रीपाचप्रभुना सिंघने कृष्णे अपूर्व अप्रतिम भक्तिपूर्वक स्थापन कर्य !!! " कृष्णोऽथ घामेयजिनस्य मूर्ति-ममेयभकिर्यदुभिः प्रणुनः ॥ अस्थापयत्तत्र निजां च भूत्ति, तच्छासने तच पुरं चकार || केटलाक एम पण कहे छे के ज्यारे कृष्ण ध्याममा बेठा इता अने नैमि. नाथ प्रभुप सैन्य रक्षण माटे शंख पो हतो तेने उद्देशीने ज आ नगर कृष्ण बसाव्यु ! जेपी से नगरनुं शम्बपूर ( शस्सेश्वर ) नाम प्रसिय थयु ! अस्तु । उपरना वृत्तान्तमां आपणने अंतरंग रटिधी वास्तधिक विचार करतां अपूर्व बोधजनक सारतस्वनी प्राप्ति धाय छे. श्रीमत्तीर्थंकरदेवनी गृहस्थावास. मां पण अप्रतिम निरभिमानता के श्रीमान् नेमिप्रभुना चरणकमळना स्नावशलधी त्रिभुवननी सर्व प्रकारनी आधिव्याधिभी दूर थह शक नेम छे, छतां एण पोतानो ते प्रभाष न जणावतां भावितीर्थकर श्रीमत्प्र भुनी पूज्य प्रनिमानो ते प्रभाव वाव छ वली तीर्थफर प्रभुनी अलौकिक दया के जे प्रभु भविष्यमा पशुपक्षिो उपरनी पाथी संसारमंगल विवाहनो पण त्याग करशे. तेमज पहजीघनिकायना अभयदाता पद भविजीवोने ते मार्गमा उपदेश आपी दोरशे इत्यादि अनुभव करायता ज जाणे होय नहि, तेम अत्यारे पण शत्रुसै. न्यमां किंचित् दुःस्व मात्र उत्पन्न कर्यु नही. भीमत तीर्थकर वे सामानस्य
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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