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२४९ ) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १४४ (३३१) यना अयादिकथी-टोकार्थः-मति आदि ज्ञानावरणना अने दर्शनमोडनीयनी ७ प्रकृतिना अययी थयेल ने क्षायिकसम्यक्त्व कोवाय, अने नेओनाज उपशमयी उत्पन्न ययेलं ने औपश० सम्य० कडेवाय, अने तेओना ज क्षयोपशमथी उत्पम ययेलं तेने सिद्धान्तना ज्ञाता क्षयोपशम सभ्य कहे' छे. प प्रमाणे तत्वार्थसूत्रना १ ला अध्यायमा छ ॥३४०॥ शंका-जो तच्चश्रद्धाने उत्सम करनार क्षयोपशमसम्यक्त्व छ तो ते [ क्षायोप० सम्प० ] क्षायिफमम्यक्त्वनु आवरण केवी रीते करे ? अथवा जो ते क्षायोप० सम्प०] मिथ्यात्वनी जानिनु (मिथ्यात्पथी उत्पन्न थयेल) होवाथी ते (क्षा० सम्य०) नु आवरण करनार ठे तो तेना (क्षयोप० सम्य०) थी आत्मधर्मरूप तत्त्वश्रद्धा केही रोते प्रगटे? ६४१
उत्तर--जेम बारीक ( पडवाळा ) अपरखनी [चीमनीमां] अन्दर रहेली दीवा वगैरेनी ज्योति-कान्ति प्रकाश करे छ, अने ते अबरख दूर कर्ये छते पोताना सतेजबडे अधिक प्रकाश करे छ, ।। ६४२॥ अथवा जेम मलिन वख मणिनु (रत्नना प्रकाशन सर्वथा) आवरण करनार होप छे, पण ते वस्ख पोइने उज्वल कर्ये छते ते रत्ननी कइक मभा प्रगट थाय के ॥ ६४३ ॥ अने बख मूळचीज दूर कर्ये छते ते मणिप्रभा पोताना संपूर्ण रूपथी प्रगट थाप छे, तेम रसापवर्तनादिवडे मिथ्यात्वपुद्गलो पण ॥ ६४४ ॥ आयोपमिकपणुं पाम्ये छते कंडक अपगटपणे आत्मधर्मरूप तत्वश्रद्धान शीघ्र प्रगट थाय छ ॥ ६४ ।। अने क्षायोपशमिकपणु क्षय पाम्ये छते आत्मस्वरूपबाई जे सम्यक्त्व सर्वरूपे (सर्व प्रकारे संपूर्ण) प्रगट थाय छे ते क्षायिकसभ्य कहेवाय छे ।। ६४६ ॥ अने ए प्रमाणे तत्त्वश्रद्धाने उत्पन्न करनार पुद्गलोनो क्षय थवाथी तस्वमा श्रदा केवीरीते थाय ते शंका पण दूर करी. ॥ ६४७ । भाष्यकार कयु छ के--पारीक अने शृद्ध अबरखना पडलोनो विनाश थतां मनुष्यनी दृष्टिनी माफक
१. अहिं दशनमोहनीय कर्म माथे मतिज्ञानावरणादि कर्मना पण(सहकारी कारपाथी) उपशम-क्षयोपशम-ने क्षययी ते ते सम्यक्त्वनी प्राप्ति कही परन्तु मत्यादिआवरणनो तो क्षयोप० मात्रज होय छे. क्षायिक अने और० सम्यमां क्षय वा उपशम थची ते खुलामो तस्वार्य टीकायी जाणवी
२ रसनी हानियो,
३ मिथ्यात्वनी प्रदेशोदय अने सभ्यः पुजनो रसोदय धतां दर्शनमोहनीयनो भयोप- भाव जाणवी.