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(३३०) सम्यग्दृष्टिबारे क्षायिकादितभेद निरूपणम् ॥ (द्वार कोइक तो प्रमत्ताममत्त भाव पण पामे छे, परन्तु सास्वादनराळो कंइपण पामनो नथी." ए प्रमाणे भावार्थ कम्पनियन्धी अनिमां पण छे. वळी सम्यक्त्वने त्याग करेला पवा ग्रंथी भेदी जीरो कर्मनी उत्कृष्ट स्थिति बांधे छे, पण तेवा प्रकारनो उन्कृष्ट अनुभाग बांधता नथी । ए कर्मग्रंथकारनी अभिप्राय फसओ,अने मैदान्तिकनो अभिप्राय तो ग्रंथि मेदी मिथ्याष्टिने प्रगट रीने कर्मोनी उत्कृष्ट स्थिति(पण) वैधाती नथी, हवे चालु विषय कहे छे-पा उपशमसम्यक्त्व उपसम श्रेणियां पण ७ दर्शनमोहनीय उपशान्त थये जीवोने श्रेणिना अन्त मुत्री ( ११ मा गुण० मुधी ) होय छ. ॥६३४ ॥ (ए प्रमाणे उप० सम्यक्त्वनु स्वरूप कहीने हवे वीजां सम्यक्त्वोर्नु स्वरूप कहे छ-) तथा लोको औषधिविशेपक्डे जेम मीणावाला कोद्रवा शुद्ध-अशुद्ध-अने अशुद्ध एवी रीने ३ प्रकारना कर छे ॥३५॥ नेम आ विशृद्ध एवा औपश० सम्य० बड़े मिथ्यात्वमोहनीय (नां दलिक) पण ३ प्रकारना थाय छे. ॥ ३३६ ॥ त्यां अशुद्ध पुंजना उदय वडे मिथ्यास्वी, अने अर्ध शुद्धपुंजना उदये जीव मिश्रदृष्टि थाय छ ॥ ६३७ ॥ तथा शुद्ध पुजना उदयधी क्षयोपशमसम्यक्त्व थाय छे. अने ते क्षयोप० सम्य० उदय आवेला मिथ्यात्वना क्षयथी भने नहि उदय आवेला मिथ्यात्वना उपशमथी थाय छ ।। ६३८ ॥ प्रारंभायली अपकश्रेणियी दर्शनसप्तक (४ अनंतानु० -३ दर्शनमोड०) क्षय यये छते ते भवमां मोक्षे जनार अथवा ३-४ भव करनार जीवोने क्षायिकसम्यक्त्व थाय छे. ६३२॥तत्वार्थभाष्यमा ए सम्यक्त्वानु स्वरूप आ प्रमाणे फहेल छ-"क्षायिकादि ऋण प्रकारर्नु सम्यकप रेट-पटले-तदावरणीय ( जे जे आवरण छ लेना ले पावरण ) कर्मना अने दर्शनमोहनी
२ जेणे प्रन्यिभेद कर्या छ तवा मिथ्यात्वे आवेला जीवी पण प्रयिभेदी कहेषाय. अने पफवार प्रथि भेदाया बाद पुनः ग्रंथि भदवान होतु नथी एयो नियम छ.
२ अबद्धायू जीय क्षायिक सम्यऋत्य पामे तो तेज भवमा मोक्ष जाय, यद्य. वैमानिकदेवायु अयवा नरकायुषाळा ओष क्षायिक मम्यकस्य पामे तो देषभव अथवा नरफभव करी पुनः मनुष्यमा आधी मोक्षे अतां चीजे भवे मोक्ष जाय, वली अद्धयुगलिक तिर्यघायु अथषा बर युगलिक मनुष्यायुवाको जीव क्षा. स0 पामे तो युगमाथी देव था पुनः मनुष्यमा आयी मक्षि जतां चौथे भरे मोझ जाय पुनः कृष्णादिकवत नरकमायो मनुष्य था पुनः देव था पूनः मनुष्य था मोक्षे जतां पांचमे भये पण मोक्षं जाय प. उपाध्यायजोनी टीकावाली कम्मपयडीमा छे.