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________________ २६) ॥ श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० १५०) (३६५) __ अर्थ-|| २६ ज्ञानद्वारम् ॥ तत्र प्रथम मतिज्ञानम् ॥ मति-श्रुत-अयधि-मनाव- अने केवलज्ञान ए पांच ज्ञान छे. तेमा पहेलु मनिज्ञान २८ भकारनु कडेलु छे. ॥ ७०१ ॥ ते आप्रमाणे-अवग्रह-ईहा-अपाय-ने धारणा ए ममाणे श्री तीर्थंकरोए मतिनानना चार मूळ भेद कहला छे. ॥ ७०२ ॥ त्यां शन्दादि विषयोनु जे प्रथम प्राण ते अवग्रह व्यञ्जनावग्रह अने अर्थावग्रहना भेदयी वे मकारनो के. ॥७०३|| दीपकपडे जेम घटादि पदार्यों प्रगट थाय छे तेम जेना वडे पदार्थों (विषयो) व्यज्यन्ते-पगट कराय ते व्यञ्जन कहेवाय छे. अने ने व्यञ्जन ज्ञानने उत्पन्न करनार एवी उपकरणेन्द्रिय स्वरूप जाणवु ॥७०४|| अथवा "जे व्यज्यते-अगर थाय ते व्यञ्जन " ९ व्युत्पत्तिनी अपेक्षाए शब्दादि भावने माप्त थयेलो द्रव्यसमूह ज व्यञ्जन कहेवाय ।। ७०५ ॥ अने तेथी व्यअनो ( विषयो) साथे व्यञ्जनोनो ( उपकरणेन्द्रियोगो )जे प्रथम सम्बन्ध तेज अत्यन्त अस्पष्ट (अव्यक्त) ज्ञानरूप व्यञ्जनावग्रह कडेवाय ।। ७०६ ।। ध्यानावग्रहनुं स्वरूप श्रीतवार्थवृत्तिमा कर्यु छ (ने बनावे )-"ज्यारे उपकरणेरणीयकर्म तथा धीर्यान्तरायकमनाक्षयोपशमयी अङ्गोपाङ्गनु अवलम्बन कयें (टेको मल्यै) ते 'आ मनुष्य में इत्यादि स्वरूप जणायाछ मनुष्यन्य विगेरे अवान्तर नातिषिशेषो जेमा तेयु उत्पन्न थर्नु शान अश्ग्रह कहेवाय छ, आ रीते दर्शन अने अपग्रहन भिन्न स्वरूपपणु सिद्ध थयु, बळी जो दर्शन अने बान ( अचअह) नो अभेद होय तो प्रथम समयमा उन्मेषथी उत्पन्न भयेल तुरतना सम्मेला ) बालकनु दर्शनपण जो मानस्वरूप मनार्नु होय तो ते मिथ्याज्ञान छ के सम्यगझान छेमिथ्याज्ञान मानो तो ते संशयस्वरूप, विपर्ययस्वरूप के अनध्यवसाय स्यरूप छे. तेमा संशयविपर्ययस्वरूप मिश्याज्ञान तो तम्यगज्ञानपूर्वक होषाथी ते यालकने अभवता नथी. कारण यालकनु आ (ज्ञान) प्रथम होषाथी ते पहेला, सम्यगहान मथी. सेमज (आक्षानमा) वस्तुमानो स्वीकार होषायी "आ कंडक छ' एषी विचारणा (उपेक्षा) स्वरूपवाटुं अनभ्यवसाय पण नथी माटे बालकनु प्रथम दर्शन मिथ्याज्ञानस्वरूप मनाय नहिं पली बालकनु प्रथमदर्शन अर्थाकारको विषय करतुं नहिं होगायो (साकारता न होवार्थी) सम्पमझानरूप पण नथी, (वळी छानस्थिकसानमा दर्शन प्रथम होय छे तेथी बालकाना प्रथम दर्शनने दर्शनरूपज मानवू पडशे जेथी पण शनशाननो भेष मित छ बळी जेन माटी अने तन्तु (तांतणा) स्वरूपकारणमा भैरथी नैना कार्यरूप घडो अने बननो भेद छे. तेम शानावरणीय अने दर्शनावरणीयना नयोपशमरूप कारणनी भेद होषाथी तेना कार्यरूप ज्ञानदर्शननो पण भेद छ, तेथी पण अपग्रह अने दर्शन भिन्न छे. अने अवग्रहथी पृर्धे दर्शन , ते . निश्चित छे.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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