SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४४४) ॥शानबारे मत्यादिज्ञानानामन्तरविचारः॥ (दार थयेलो जीव पुनः जेटले काळे मत्यादिज्ञान पामे तेटलो काल मत्यादिज्ञान अन्तर (विरह, कहेवाय. ॥४॥ त्यां मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान- अन्तर (उपर कया प्रमाणे) काळथी अनंतकाळचक्र अने क्षेत्रथी कंडक न्यून ०|| अध पुद्गल परावर्त छे. ॥५॥ अवधि अने मनःपर्यवर्नु मा उत्कृष्ट मनाने प्राक, अमेका सर्वज्ञानमा (४ ज्ञानमांजघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त मात्र हे.॥ केवळज्ञानर्नु अन्तरज नपी,कारण के तेनी स्थिति सादि-अनंत के. अने अनादि-सान्त तथा अनादि अनन्त स्थितिवाळांचे अज्ञानमा (मति-श्रुत अज्ञानमा) पण अन्तर नथी. ॥ ७ ॥ अने ए वे अज्ञाननी सादि-सान्त स्थितिमा पुनः साधिक ६६ सागरोपम अन्तर छे अने ने सम्यक्त्वनी उत्कृष्ट स्थिति (पथम कही छे ते) प्रमाणेज तेर्नु उत्कृष्ट अन्तर जाणवू. ॥ ८॥ विभंग ज्ञाननु अन्तर बनस्पतिना उत्कृष्ट काळ ( फायस्थिति ) जेटल छे, अने ए त्रणे अज्ञानमां जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त जाणवु. ॥२॥ ज्ञानो, अल्पबहुत्व, मनःपर्यव ज्ञानी सर्वथी अल्प छे, तेथी अवधिज्ञानी जीवो असंख्यगुणा छ, तेथी मति-श्रुत सानवाला अधिक अने परस्पर तुल्य छे. ॥१०॥ तेथी विभंग ज्ञानवाळा असंख्यगुणा छे, अने तेथी पण केवळझानी अनंतगुणा कहेला छे. ॥ ११ ॥ तेथो वे अज्ञानवाळा जीवो अनंतगुण छ पण परस्पर तुल्य छे. वळी ए आठे ज्ञानोमां जिनेश्वरोए अनंत अनंतपर्यायो कहेला छे. । १२ ॥ १ मनःपर्यायशान लब्धियन्त अप्रमत्तसंयतमनुष्योने ज थतुं होवाथी ममःपर्यषज्ञानी जीया परिमितज होय छे. अधिज्ञान सम्यग्दृष्टि सधंदेष तथा सर्वनारकोने भषप्रत्यधिक होया छे तथा मनुष्यातियचोमा केटलाकने गुणप्रस्यायिक थाय छे. पटले पारे गनिना जीवोने तेलो समय होपाधी अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा छे मति अने अतमाम अधिशाम लेओने होय मोने तो होयज अने अपशिशान रहित पण सम्यग्दृष्टिजीषोने होय छे, जेथो अघविज्ञानि करता मतिः-श्रुतमानो बधारे छे, मति अमे शुतज्ञान नो सहपर्ति होषाथी से ये परस्पर तुल्य छ, विभङ्गज्ञान सम्यग्दृष्टि शिवायना तमाम देष तथा भारकोओने भवप्राययिक होयज छे मनुष्यत्तियंघोमां पण केटलाकने होय यी मति--श्रुतक्षानियो असंख्य गुणविभङ्गमानिओ होय छे केवलमान सब सिहभगवन्तोने तथा सयोगि ( १३ मुं) तथा अयोगि ( १४ मुं) गुणस्थामवर्तिजीमोने होय छ, मेथी अनम्तगुण फेषलझानि भगवन्तो छ, तेममाथी समाधि वनस्पति विगरे सर्व मिथ्यावृष्टिजीची मतिनानी अने श्रुतअज्ञानी धीय छ, जैसी अनन्तगुणा कमा है, अने से ये अज्ञानो सहति होवाधी परस्पर तुल्य छे.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy