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________________ {30] ॥ इन्द्रियहार प्राप्यकाग्विापाध्यकारित्वविचारः ॥ द्वार अहीं बद्ध एटले आत्मप्रदेशोए आत्मरूप करेल (एकीभाषे करल) कवाय अने शरीर उपर लागेली रजनी माफक आलिंगिन मात्र [ वळगेल ] होय ने म्पृष्ट कहेवाय ।।५२४॥ " वद्ध एटले आत्मपदेशोप आत्मीकृत अने स्पृष्ट एटले शरीर पर लागेली रजनी माफक प्रमाणे ( विशेषा मां ) कहेले होवाथी ( पूर्वोक्त अर्थ युक्त छे.) मश्नः- चारे इन्द्रियोर्नु पाप्यकारीपणुं सरखं छतां पण स्पृष्टबद्ध अने स्पृष्टविपयने ग्रहण करवा रूप ने नारन देगा ५२५ ॥ उनरः- शब्द द्रव्यनी अपेक्षाए स्पर्श-गंध-अने रसना द्रव्यनो समूह अति अल्प-चादर अने शीघ्र अवासक [वीजा पुद्गलोने ते परिणामे नहि परिणमावनार] वाळ होवाथी भने पनि प्राण-नथा जिला पण ( ग्रहण करवामां) मंदशक्तिवाळी होवाथी ए त्रणे इन्द्रियो निश्चय पद्धस्पृष्ठ द्रव्यसमृहनेन ग्रहण करे छे. ॥ ५२६ ॥ अने स्पर्शादिद्रव्यसमृटनी अपेक्षार शन्दनो समूह घणो-मूक्ष्म-अने नजीक रहेला (पोनाने स्पर्शला) शब्दयोग्य द्रव्यने शन्दपणे परिणमावनार ले ॥ ५२७ ॥ तेथीते (द्रव्यसमूह ते अभ्य०) निर्वत्ति श्रीन्द्रियमां जइने अने [अभ्य०] उपकरणेन्द्रियने स्पर्शीने पोताना विषयवाळी अभिव्यक्ति (स्वविषयिकबोध) तुर्नज कर छे ॥ ५२८ ।। ___वळी वीजी इन्द्रियांनी अपेक्षाए श्रोत्रन्द्रिय पटुःशक्ति (शीघशक्ति) चाळी छ, नेथी स्पृष्ट शब्दद्रव्यने ग्रहण करें एम जे काय ते उचित छे. ॥ ५२९ । पात्रन्द्रिपर्नु पाप्यकारीपणुं मान्ये छते चंडालनो शब्द सांभळगादिकने विश बौद्धोनु कहे जे मार्शदूषण ने युक्तिरहिन छ । कारणके स्पृश्यास्पृश्यनो विचार लोकव्यवहा १ आकाशमां रहेल बीजा द्रव्यममृहने पोताना स्त्ररूपे नहिं परिणमायनार ने अघामक. २ योद्रो एम माने केंद्र के अन्यज वर्णने जम देहमी स्पर्श थपाथी अमहायान गणाय छे तेम तेना बोलेला शम्दादिक स्पर्श थतां पण आपण अ. भडा छोए जेथी धोत्रन्द्रिय शब्दश्यने स्पर्श कर्यापिना एटले अमाप्यकारिपणे श्रवण करे छ, घटी ते बायतमा एक युक्तिपण तेओ को छ के जे चानुगिन्यथी पदार्थ देखयाथों दिग्देशन नियतपY जणाय ? नंबुज श. सांभाळतां श्रोत्रेन्द्रियथी पण जणाय छ, माटे श्रीन्द्रिय चक्षुनी माफक अ. प्राप्यकारी छे विगैरे. परन्तु प वान अनुचित छ. कारण स्पृश्यास्पृश्य व्यहा. र लोकव्ययधारने अनुमरतो , शब्दमां कारण पण ने मान्या नथी तथा दिदेशमियतपणु गन्ध संघतां घाणेन्द्रियमां पण इंणाय छे. माटे युधिपण व्यभिचारबोपग्रस्त छ, इति तात्पर्य,
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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