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| शरीरद्वारे तदर्थत्वादि निरूपणम् ॥
(द्वार
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था, अने मां उत्पन्न थयेलं जे शरीर ते वैक्रिय शरीर कहेवाय ( ए व्युत्पश्यर्थं को). ते चैमि शरीर स्वाभाविक अने लब्धिप्रत्ययिक एम वे मकारनुं छे. ||२७|| कारण के प वैक्रिय शरीर एक थाय ले, अनेक थाप के, दीर्घ (लांबु) पाय के अने हुंकुं पाय छे, म्हो थाय छे अने नानुं थाय छे, दृश्य थाय छे अने अवश्य थाय छे तेमज जमीनपर बालनार थाय छे, अने आकाशमा उडनार थाय छे। ९८ || (ए ममाणे विविध प्रकारनी क्रियावाल वैक्रिय शरीर के ; नया आकाश भने स्फटिकरत्न सरखं निर्मळ, केवळी (१४ पूर्ववर) मुनिष करलं, बने अनुत्तर विमानवासी देवोना शरीरनी कान्ति करत पण अत्यंत मनोहर कांबा आहारक शरीर होय हे ॥ ९२९ ॥लशान (१४ पूर्वना ज्ञान ) वडे प्राप्त roat आधि विगेरे लब्धिवाळा, मेनः पर्यवज्ञानी, जंघाचारण अथवा त्रिया. चारणमुनि के जेओने आहारकलब्धि उत्पन्न थयेली होय ते मुनि आहारक श रीर रचे है ॥ १०० ॥ तथा उष्णताना चिन्हबा, तेजोलेश्या अने शीतलेश्या मूकवायां मुलकारणरूप, कार्मण देहनी सावेज रहेनारुं अने आहार पचानवाम समर्थ एवं तेजस शरीर होय छे। १०१ । तपादिकवडे उत्पन्न थयेली तेजोब्धियुक्त जोबने कोइक प्रयोजन पचे छते ए तेजस देहमांची तेजोलेश्यानुं निर्गमन (निफळ ) थाय छे।। १०२ । श्रीजीवाभिगमसूत्रमी वृत्तिमां आ प्रमाणे धुं के के" सर्वने उष्णता लिंगबाळू, रसादि आहाग्ने परिपक्व करनार, अने तेजोलेश्यारूप aftधनुं कारण तेजस शरीर के एम जाणवु 11 703 || प प्रमाणे शीतलेश्यानुं निर्गमन पण आ तैजस शरीरथीज होय छे, ए हेतुथी रोष बड़े परनो निग्रह ( उपघात ) अने संतुष्ट थवाथी अनुग्रह, [टपकार] आ तेजस शरीरयोज थाय छे ॥ १०४ ॥ तवार्थवृत्तिमां पण तेमज कछे के" ज्यारे उत्तरगुण प्रत्यधिक (संपादिकना निमित्त बडे ) लब्धि उत्पन्न थाय छे, त्यारे बीजा जीव उपर दाह करवाने ( तैजसदेह ) मोकले छे जेम क्रोध बडे घमघमेल गोशाळानी पेठे, अने मन भयो होय तो शीत तेजस वहे (शांतता उपजाववादिक) अनुग्रह ( उपकार ) तथा जे अनंत कर्मप्रदेशो साथै दूधमा रहेला जळकी माफक परस्पर जोडाह
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करे के " ॥ १०८ ॥
१ मनः पर्यषज्ञानीय पूछेला उत्तरों आपना केवलिं भगवान, द्रव्यमननी प्रयोग करे छे एवं सिद्धान्तवचन होवाथी आहारक शरीर बिना पण संदेहनिवृति यह शके . लोपण तीर्थकर ऋद्धिदर्शनादि हेतुने करने करवामां दोषापति गथी. चारणमुनिना संबंधमां सूक्ष्मबुद्धियो विचार.
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