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________________ (५८८) ॥ गुणस्थानद्वारे पञ्चमगुणस्थानमरूपणम् ॥ (बार स्थान पण वेज (देशविरेत गुणस्थान) कवाय छे. ॥१॥सर्व मावद्यन्या- . १ गुणस्थानकमा जेम जेम जीष उंचो आवतो जाय तेम तेम पूर्व पूर्व गुणम्यानकर्मा प्रगट थयेल गुणो उपगत विशुद्धिनी अधिकताने लामे अधिकाधिक गुणो प्रगट यतां जाय छ नेथोज देशविरतगुणस्थानकमा चोथा अधिरनमम्यगपूष्टि गुणस्थाने "उम्पन्न ययेल" सम्यश्यगुण उपरांत स्वशक्ति प्रमाणे विरति गुण उम्पन्न थाय छे. आ देशधिरत गुणस्थान जघन्यमां पकवनथी मांडीने उत्कृष्टमा अनुमति भारसधा सण. :- सं. पाणसहिओ गिहतो विरामप्पामतीए । पगम्यया चरिमो अणुमामित्तोति देममा ॥१॥" मक पण कोर लावधर्नु पच्चक्खापाको ते पकविरत ते 'जघन्यदेशाधिरन, नेयो उपरांत उत्कृष्थो म्यान ते " मध्यप्रदेशविरत" २. अने संपूर्ण बारव्रत. धारी पर्वसाधचनु पच्चरूग्वाण कयु होय पण अनुमतिमात्र तेवतो होय ते '' उत्कृष्टदेशविगत " ३. अहो अनुमतिना प्रण भेदो छ र प्रतिसेवनानुमति २ प्रतिश्रणानुमति ३ संघासानुमति, १ प्रतिसेवनानुमति-पोते या बोजाओप करेला पापनी प्रशंसा करे अथवा मावशारंभथी .पनेला आहार विगेरे बापरे ते. २ प्रतिपक्षणानुमति-पुत्रादिये कोला पापने भवण करे सांभळीने अनुमोदे पण निषेध न करे ते ३ संवासानुमति-सापचारंभमा प्रयतेला पुत्रादिमां केवल ममत्व मात्र युक्त होय बीझुं कांह पम तेमनां पापन सांभळ फ वखाणवू के अनुमोद न होय ते. आ वणर्मा पण मात्र संबासानुमनि होय पण पतिसेवनानुमति के प्रतिश्रवणानुमति पण न करे त्यारे उत्कृष्ट देशविपत कषाय, अने में सर्वश्रावकीमा गुणोथी उत्तम जाणवी. दे. शधिरसिगुणस्थानमा अविरतसम्यग्दृष्टिनी अपेक्षाये अगस्तगुणविशुद्धि होय के आ गुणस्थानकना असंख्यात विशुद्धस्थानको छे. देविति तथा सर्ववि. रतिनी प्राप्ति माटे यथाप्रवृत्त करण तथा अपूवकरण पम में करणो करवा पड़े रहे, पण मध्यक्रवामिनो जम त्रोझुं अनिवृतिकरण होत नथी तंमां अ. घिग्लसम्यगष्ट छनो बे करण करे तो कोडक जोध देशधिरनि पामे, अने कोडक विशुदिनी अधिकताथी सर्यविरति पाम में, अने जो देशषिरत छत्ता बकरण करे तो सर्वविसि पामे देशविरति अने सचिरति पाम्या पाही अ न्नमहर्नकाल सुधी अवश्य प्रवर्धमान परिणाम बाळा जीव होय है. अने तथीज देशपिति के सचिरति पाम्या बाद उदयावळिकानी उपरनी अम्ममइतमुधो दकसमये इलियानी पचनानी अपेक्षाये असंख्यातगुणावृद्धिवाली गुणणि रचना करे छ, अने अन्तमुहर्त घाव कोइक विशाध्यवसायवाली आत्मा व. धमानपरिणामी शेय, कोइक अविशदाध्यवसायवाळी हीयमानपरिणामी, अने कोरफ अवस्थितपरिणामी थाय छे पर्धमानपरिणामी हायतो आगळ पण पधती गुणणि करें, होयनानपरिणामी हीयमान अने अवस्थितपरिणामी अ. स्थिन रचना करें, अबस्थित अने होयमान परिणाममा स्थितिघात-सघात
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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