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(४०२) ॥ ज्ञानबारे अवधिज्ञानभेदस्वरूपनिरूपणम ॥ द्वार) झान ॥ ८४५ ॥ ए अवधिज्ञान ममादबडे अथवा परभक्मां जपायी पतित थापळे । [ एकदम विनाश पामे छे. ] हवे सिद्धान्तने अनुसार अमतिपानि अव ज्ञानन स्वरूप कहोश || ८४६ ॥ जे अवज्ञान अलोकना एकपण प्रदेशने ( संभवसत्ताए त्यां कोइ रूपी पदार्थ होय तो तेने) देखवाने समर्थ होय ते अप्रतिराति अवधिज्ञान कहवाय, प्रने त्यारवाद तुर्तज ( अन्तर्मु मां ) केवलज्ञान उत्पम धाय छ । ८४७ ।। आ भेदोमा हीयमान अने पनिपानि ज्ञानमांशु तफावत छ ? ते कहे वाय-प्रतिपानि अवधिज्ञान एकदम समूळ नाश पामे छे, अने हीयमान अव ज्ञान धीमे धीमे क्षय पामे के ॥ ८५८ ॥ए कर्मग्रन्धयत्तिना अभिप्रायथी का. तस्वार्थभाष्यमा तो अनवस्थित अने अवस्थित भेदन स्वरूप आ प्रमाणे कां छ के-" अनस्थित अवज्ञान घटे छे अने व छ तथा क्षे के. अने घटे छे, नरंगनी माफफ वारंवार पडे अने उन्पम थाय छे, अने अबस्थित अवधिज्ञान जेटला क्षेत्रमा उत्पम थाय छ, तेटला क्षेत्रथी ओई यतुं नधी, परन्तु केवलज्ञाननी प्राप्तिमुधी स्थिर रहे छे. ए शान लिंगनी पेठे भवना अन्नमुधी अने परभवमां पण रहेनार ( साथे जनार) होय छे." जेम लिंग एटले पुरुषादिवेद आ भवमांथी लइने पाणी परभवमां जाय छे तेम ए ( अवस्थिन ) अवधिज्ञान पण (परभवमा साये जाय छे. ) अहिं ए ६ प्रकार नु अवधिज्ञान मनुष्य अने तिर्यंचने क्षयोपशमभाववाळ होय छे, अने देव-नारकने भवमत्ययिक होय छे ।। ८४९ ॥ तत्वार्यसूत्र (अने भाष्य)मा कपुंछ के-" भवप्रत्ययिक अने क्षायोपशमिक एम वे प्रकारचें अबधिज्ञान छे" बळी आ भवमन्यायिक अवधिज्ञान पण क्षयोपशम विना होतुं नथी कारण अहिं ( भवान्यायिक ज्ञानर्मा) क्षयोपशमनु अन्वयव्यतिरेकवडे हेतुपर्ण होयाथी, परन्तु ॥८५०|| आयोपशमनी अंदर भवज हेतुरूप छे ते कारणथी आ (देव-नारकनो भव) कारण पणे
१. भलोकनो एक प्रदेश देखी वृद्धि पामतुं पामर्नु अलोकमां असंख्य लोक प्रमाण अंध जीवानी शक्तियाळ थतां परमाषधि याय अने स्यारबार कंपळशान पामे. अहिं अलोकमां जोधार्नु होय नहिं पण जो सूपिपदार्थ होय तो ते जोवामी शक्ति छ. एम जाणवं.
२ अपथिलानाधरणनो क्षयोपशम होय तो अवधिज्ञान होय ए अ. बय, अने अबाधिज्ञानावरणमो भयोप न होय तो अबधिज्ञान न होय प व्यतिरेक कवाय.