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॥ श्रीलोकमकाशे प्रथम सर्गः ॥
लाक अर्थों आपणे क्रमशः जोर शकीर्ण, उत्कृष्ट मानन्दना निधानस्थरूप पार्श्वनाथ भगयान् ए प्रथम प्रसिद्ध ज अर्थ छे, या उपरथी उत्कृष्ट आनन्द के 'जे कोइपण यखते दुःखथी मिश्रित थतो ज नथी.' 'जे आनन्दनी विच्युति नथी. ' 'जे आनन्द अगम अगोचर अलक्ष्य कहेवायेलो के.' 'जे आनन्दने साक्षात् केवलटिए सर्वशप्रभु जाणतां छतां प्रत्यक्ष यथास्थित तथाभावे कही शकता नथी. मात्र जे कार देखाडे के ते पण असत् उपमाप करी यत्किंचित् देखाडे छे. ' 'जे आनन्द मुमश्च आत्माओने सयंदा पच्छा विषयरूपे रमी रह्यो छ,' जे मानन्दने परमयोगीओ यत्किचित्पणे सहजानुभवथी वेदी रहा छ, ' 'जे आनन्द करी आन्माना सहगुण ज्ञान दर्शन चारित्र धीर्थादिनी स्वरमणतामां आत्माओ लय पामी रहेछ, ' ' आनन्दने माटे तीर्थकर गणधर प्र. तिपादित मोक्षानुष्ठानमा अखंड अविच्छिन्न अविचलपणे उद्यम करवानी आय. श्यकता छ,' 'जे आनन्दथी आधिदैविक आधिभौतिक आध्यात्मिक शारीरिक मानसिक परकृतादि आधि व्याधि उपाधिो सर्वथा दूर ज रहे ले, ' 'जे आनन्दमा कोरपण जातनी परभावनी रमणता के विपरीतता भ्रान्ति विगेरे रहेता अ नथी, ' विगेरे भायनाथी पट्कारक चक्रो पण जेनी अन्तर्गत थाय छ, आवा अपूर्व मानन्दनो यत्किचित् अनुभवास्वाद पोताना शुद्धशीलमां वर्तता मुनिओ अनुभवे छे. कारणके तेवा मुनिओना मासादिपर्यायनी वृद्धिय देवताना उत्तम सुखोनो पण अतिक्रम 'भगवतीमानि' सिद्धान्त प्रन्थोमां प्रतिपादन कयों छे, आ परमानन्दनी अपेक्षाए मुनिमोना यत्किंचित् आनन्दने पण सिद्धा. न्तकारोए चमतिना सुखथी पण अनुपम वर्णव्यो छे. कधु के के " विनय थया छे रागद्वेष जमना एघा वासना संथारा उपर बेटेला मुनि जे निलोभ दशाना सुखने अनुभवे छे. ते सुग्नने चक्रवत्ति पण क्याथी अनुमवी शके ? " था वचनने वसपूर्वघर वाचक उमास्वाति महाराआर्नु वचन मजवून टेको आपे छ, " लोकव्यापारधी विरक्त रहेनार मुनिश्रीने जे सुख अहीं के ते मुख चकवत्तिने के इन्दने पण नथी " आ उपरथी पटलं तो निर्विधावपणे आपणने कबुल करवू पडशे के रागद्वेषनी विरक्तिथी पकान्त शान्तरसमां मन्न रहेनार मुनिओ अवर्णनीय लोकोसर आनन्दनो अनुभव करे छे !! ___सुम्खता हेतु कान्तरसेन्द्रने शास्त्रकारोए चक्रवत्तिनी साथै सरमाच्या छे, कारणफे सक्रनिने जेम रला पटले पृथ्वीन इन्द्रप' होवाथी रसेन्द्र कहेवाय है, लेम शान्तरस पण शृंगार वैधाग्यादि सर्व रसोमां अधिपति होघाथी ते पण रसेन्द्र छे, तेमज चक्रवत्तिने नयनिधानो प्राप्त थाय के लेम शान्तरसेन्द्रमा सर्व मंगलोनो निधि प्राप्त थयेलो छ !! ।
पली शान्तरसने शास्त्रकारोप अमृतनी साथे सरसाव्यो छे, जेम लो. किक उदन्त प्रमाणे देयोए घणी ज महेनते मन्दार पर्वतरूपी रवैयापी समुत्तुं मन्थन करी अमृत काहयु तुं लेम पूर्वाचायाप अंगउपांग प्रकीर्णकादि भागमो