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________________ । महलावरणविधेचनम् ॥ तथा प्रन्यरूपी समुद्रमाथी नीत्र क्षयोपशमजन्य महाबुद्धिरूपी रवैयाधी आशान्तरसामृत्तने दोहन को छे, म ज शान्तरसेन्द्र ने रसेन्द्र सर्व रसायणामां उत्तम पारानु उपमान पण घटी शके छे ! ! आवा अत्युसम शान्तरसनी भावनामा लीन रहेनार मुनिओ जे सुखने अनुभवे के ते सुखानी आगळ सर्व इन्द्रियोथी थतुं सुख समुद्रनी आगल पाणीना विन्दुनी उपमाने लायक थाय छे. ज्यारे सामान्य मुनिमुम्न पण आटलु लोकोतम छे तो वीतरागतानु अने सिद्धदशा- अलौकिक मुख तो निर्वथन करी शकाय ज नहीं, प्रकरणकारो पण वीतरागसुखना वर्णनमा जणावे छे के " आ सोफमां से फामजन्य पियसुख छ भने यौन जे महासुख छ से पण चीतरागना सुखनी आगळ अनन्समाभागे न्यून छे, " आज कारणमाटे लौकिकसुम्सने कुसुमपुर नगरमां भिक्षुकना स्वप्ननी उपमाए असत्स्वरूपे शास्त्रमा वर्णव्यु के, आ सिद्धना अनुपम सुखने आज अन्यना धीजा सर्गमां अन्धकार उपाध्यायजी पोतेज वर्णन करशे !!! आवा अवर्णनीय अपूर्व परमानन्दनिधि परमात्मानो नमस्कार अवश्य मंगलने माटे थाय छै??? आ मानन्दना तरंगो अमजेम रागपनी हानि थती जाय तेम तेम प्रगट थता जाय छे. ते यावत् क्षपक श्रेणीमा आरुढ थर निद्रा स्वपन जागर ए शात्रिक उल्लंघी खोथी उजागर यशामां लीन थता स्तापक निन्थावस्थामां कंघललक्ष्मी संपादन की यावत् शैलेशीकरण विगेरे अवस्थाओमा कर्मोनो क्षय करी संपूर्ण प्रशरस अनिर्वचनीय अखडानन्द प्राप्त कराय छे, या विशेषणना अर्थमां तीर्थकृत्प्रभुना मूल चार अतिशयमांनो प्रथम 'अपायापगम ' नामनो अतिशय तेमज सुखातिशय' पण ध्वनित थाय छे. १, 'प-रमा आनन्दनिधानाय' आ प्रमाणे शब्दालेप करवाधी 'पातीति पः' ए व्युत्पत्तिप करी प्रकृति प्रत्ययना विभागवाळा 'प' शब्दना पजीवनिकायना पालक तीर्थकर महाराजा वाच्य छ, भने 'रमा' पाक करी तेओधीनी जे आईन्त्यलक्ष्मी चौत्रीश अतिशयो अष्टमहाप्रातिहार्यों पांत्रीश याणी गुणो विगेरे तेना आनन्दना निधान पार्श्वनाथ प्रभु छ, प बीजो अर्थ थाय छे, मा अर्थधी तीर्थकर प्रभु के जेमणे पोताना अग्रिम श्रीजा भवे विशतिस्थानक पदोमांधी कोरपण पदनी अथवा तो चेत्रण सार यावस् चीशपदोनी यथाविधि सम्यगाराधनाथी तीर्थकर नामकर्म निकाचित करी पेव अथषा नरक भवमाथी ते ते गति संबन्धि अवधिशानसहित भरत ऐवत के विदेहीय यत्रीश विजयना मध्यखंडमां आर्यदेशमा उत्सम जाति कुलने विषे परमात्मरूपे सर्व जगजीवना उद्धारने माटे रत्नकुंक्षी मातामा गर्भमां अवतरे ले, तेज चखते भिभुवनमा उद्योत, सर्व जीवोने आनन्द, नारकी जेवा दुःखानुयद्ध, जीयोने पण वर्ष थाय छे, देवेन्द्रना अचल सिंहासनो पण चलित थाय ले. अवधिप्रयोगधी परमात्मानु च्यवन जाणी शफस्तवथी त्यां राधां छतां द्रव्यधी
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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