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________________ ॥ श्रीलोकप्रकाशे प्रथम सर्गः ॥ सन्मुख जया पूर्वक भाववन्दन करी विशाल हृदयथी च्यवन कल्याणकनो महिमा करे छे, त्याद्याद गर्भस्थिति पूर्ण थये परमात्मा सुखद जन्म प्राप्त करे छे, सेज समये प्रभुना प्राच्य पुण्य प्रभावपुख पमना मकरन्दथी आकृए थयेली छपपन्न दिनकुमारी भमरीओ आवी सूतिकर्मादि करे, यावत् चोसठ इन्द्रो स्थ स्वपरिवार सह मळी मेरुपर्वत उपर, परमात्मानो अन्माभिषेक करी अमकस्पा महोत्सव समोशभक्तिपूर्वक रुडी रीते करे छे. यावन् दीक्षाकल्याणक महोत्सव, केवलज्ञानकल्याणकमहोत्सव, समवसरणादिसमृद्धि, इत्यादि तीर्थंकरसाम्राज्य जे काललोकनी अंदर भागळ ग्रन्थकार उपाध्यायजी पोतेज वर्णचशे ते सकल तीर्थकर लक्ष्मीना भोक्ता पाव. नाथप्रभुनो नमस्कार मंगलप्रद छे, आ अर्थ करवाथी बीजो पूजातिशय ' पण व्यजित थाय छ, २ 'पर-मा-आनन्दनिधानाय' आ प्रमाणे शब्द विश्लेष करवायी पर-सर्वथी श्रेष्ठ ज्ञानस्वरूप या भोक्षस्वरूप, मा-लक्ष्मी तेना आनन्दना निधान पार्श्वनाथ प्रभु छे. आ पण एक अर्थ था शके छ. मा अर्थधी श्रीजो 'शानातिशय ' स्पष्ट पाय छे. ३ 'प-रमा-आनन्दनिधानाय' प विश्लेषधी पोदगलिक उत्कृष्ट ऋद्धिनो आनन्दमोक्ता जेम प--कुबेर छे तेम पार्श्वनाथप्रभु निजस्वरूप आत्मिक ऋद्धिना आनन्दनिधि छे ए चोथो अर्थ.४ परम-श्रानन्दनिधानाय' आ विश्लेषधी ऐ. कान्तिक आनन्दनिधि प पंचम अर्थ. ५ इत्यादि अनेक अर्थीथी आ विशेषणमा उपाध्यायजीए पार्श्वनाथप्रमुना अद्भूत आश्चयपद अनेक गुणो तथा अतिशयोनो भास आपणने कराव्यो छ, पली शंखेश्वर पार्थप्रभुनु यीशुं 'महस्विने' ए, अपूर्वगुणवोधक विशेषण छे. एटले के तेजयंत पा नाथप्रभु छे. प्रस्तुविशेषणमां कदाच कोइने अज्ञान अवस्थाथी के भ्रान्तभावथी चितर्क उत्पन्न थशे के आ विशेषण तेओश्रीना आत्माने लागु पडे मेम नथी कारणके उद्योत के प्रभा स्वरूप तेज पुलात्मक होवाथी अमूर्त आत्माने ते होई शके नहि, माटे तेमना प्रतिबियतुं या तो नेओनीना शरीरनु ज आ विशेषण मानg पडशे, प्रतिषिवना गुणने अने परमात्माने कोइपण संबंध नहीं होवाथी प्रतिबिंबना गुणनु वर्णन करवू केवल व्यर्थ छे, धली परमात्मा मिद्धदशामा 'शुद्धनिरंजन निराकार होचाथी लेओनी आरुति पण मभक्ति नथी विगेरे विगेरे आ तेओनी मीमांसा फेटली भूल भरेली छे ते तेमज चार निक्षेपामांधी कया निक्षपानों नमस्कार उपाध्यायधीने अभिमत छे, चारे निक्षेपा केवी रीतना परस्पर कथंचित् अभिन्न दोई उपकारक थाय छे, वीतरागता, शान्ति आदि अनेक गुणोनो भास करावनारी तेओधीनी आकृति केटला निःसीमगुणने उत्पादन करनारी छे विगेरे विचारो विशेष्यपदान्तगत विशेषणथी जोह शफीये, आ पार्श्वप्रभुनु तेज सकल देच देवेन्द्रीना पिडित करेला तेजधी पण अनन्तगुणुछे ।
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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