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________________ ॥ थीयोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः ॥ यशाच विहिताः पुरा ॥ ५ ॥ तस्मादोमित्युदाहस्य, यशदानतपक्रियाः । प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सात ब्रह्मवाविनाम् ॥ ६॥" यळी मांश्योपनिपद विगेरे उपनिषदोना पण प्रथम मनोमा प्रजापतिष सम्, यजुः, साम पत्रण वेदोमाथी साररूप दोहन करेला अनुक्रमे अ, उ, म्, स्वरूप कारनो सर्वोच्चतम महिमा वर्णन करतां जणान्यु जे "ओसिमावदारशिय खाय शस्योपासनम् । भूत भवनविष्यदिति सर्वौकार एष " चली धिशेषथी उपदिशे छे के, "प्रणयो धनुः शरो बारमा, ब्रह्म नल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमनेन वेद्धव्यं शरवसन्मयो भवेत् ॥ १ ॥ इत्यादि कारना संबन्धमा उपनिषद् विगेरेना अनेक विचाग शाम्रोधी जाणधा योग्य छे. ____ॐकार ए मर्य मंत्रोमा आधपद छे मंत्रोन आदिवीजक छे, सर्व घोंनो आधजनक छे, शब्दसृष्टिनु मूलबीज छे. अनाद्यनन्तगुणयुक्तास्वरूपमंत्र के, ज्ञानज्योतिनु केन्द्र छे, अनातिनादनो प्रतिघोष परब्राह्मनो घोतक अने परमेष्टिपदनो याचक छ, सर्वदर्शन अने सवतंत्रोमां एक सरखी रीते ते व्यापक छ, योगिजनोनो आराध्य देव छ, सकाम उपासकोने कामितफलनो अने निष्काम उपामकोने आध्यात्मिक मोक्षफलनो दाता छे. हृदयना धक्कारानी जेम योगिओना हृदयमां निरन्तर स्फुर्या करे छे. भिन्नभिन्न वर्णरूपे ध्यान करातो विविध फलने आपनार छ, इत्यादि विशिष्ट स्वरूपमय शालाकारोये चर्णब्यो छे, यळी महापुमपो 'फरमावे छ के-दुःक्दावानलनी ज्यालाने शान्त करवामां नवीन मेघ, सकल शास्मशानना प्रकाशमां दीपक अने पुण्यना शासनरूप ा प्रणवने निरन्तर स्मरण करो जे प्रणयरूप कारथी अत्यन्त निर्मल शब्दात्मक ज्योति उत्पन्न था छे ते ॐकारनी साथेज परमेष्ठिनो वाच्यवान्त्रक सम्बन्ध छ. पटले के *कारनु परमेमिट वाच्य , अने परमेप्टिनो कार वाचफ के कयु छ केम्मर दुःखानालज्यादाप्रशान्तनवनीलम ॥ प्रणयं थायमानप्रदीपं पुण्यशासनम ॥ यस्मान्छन्दाम ज्योतिः प्रस्तमनिनिर्मलम् ॥ वाच्यवाचकसम्बन्धम्सेनैव परमेष्ठिनः ॥ आ ॐकारने मंत्रशास्त्रोमां प्रणव धनामधी कहेवामां आध्यो छे, जो के प्रणवशब्द मंत्रीजक सूचवे के तो पण व्युत्पत्यर्थथी पटलुतो निर्विवाद के के, "क स्तुतो', धातुउपरथी 'नवनं नयः' म शम्न घने छै प्रकृष्टो नवः प्रणवः एटले के उत्कृष्ट प्रकारनी स्तवना अथवा प्रकर्षण नूयते स्तूयतेऽननेति प्रणयः "प्रकर्षपणे स्तवना काय छ जे अन्नबढे ते प्रणम्र अक्षर कहे. याय ए प्रणवशन्दनो अर्थ थाय छे बळी आ प्रणयने योगशास्त्रकारोण, आत्मकास माटे घणो अगत्यनो तेना जारविधि साथे बतायो छ, कहे छ के-ते इश्वरनो वाचक छ इश्वर तेनो वाच्य छे. जुओ पातंजलयोगदर्शन नस्य (बे सत्र) समाधिपदसूत्र २७-२८ "नस्थ वाचकः प्रणव" "जपस्तदर्थभावनम" वळी अन्योना परमागध्यशास्त्र गीताजीमां पण प्रणववाचक अंकारनो परम महिमा असाव्यो के जुओ गीता अध्याय ८ श्लोक १३, "ओमित्येकाक्षर ब्राहमव्याइरन्मामनुस्मरन् || यः प्रयाति त्यजन्देई स याति परमां गतिम् ॥ "धळी
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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