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(४८०) ॥ आहारदार भोजसादित्रिविधाहारस्वरूपम् ॥ (द्वार जीवोने-देवताओने-अने नारकजीवोने होय नहिं ॥२७ ॥ सर्वे अपर्याप्तजीवो ओम आहारी, अने देहपर्याप्तिए पर्याप्त (मतांतरे पर्याप्त सर्वजीवो लोमाहाती छे, ॥२८|| ओज आहार अनाभोगिकज (उपयोग रहितज) होय छे, अने लोमाहार आभोगिक (अने अनाभोगिक) पण होय छे. परन्तु एकेन्द्रिपोने तो लोमाहार पण अनामोमिक जछे ॥ २९ ॥ तेज प्रमाणे श्रीसंग्रहणीवृत्तिमा का छे के-" अति अल्प अने अपटु ( अतिमन्द ) मनोदव्यनी लब्धिवाळा एकेन्द्रिय जीवोने आभोगना (उपयोगना) मन्दपणायी वास्तविक रोते अनाभोग निवनित ज (आहार) होय छे. " फारणके सिद्धान्तमा का छे के-" एकैन्द्रियजीवोने आभोग निवर्तित आहार नथी पण अनाभोग निवर्तित आहार छे." आहारकपणानो काळ-आहारकपणामां जघन्यकाल वे सेमयन्यून शुल्लकभव ( २५६ आवली) प्रमाण छे. अने उत्कृष्टकॉल असंख्याता कालचको प्रमाण जाणतो. ॥१३॥ ए प्रमाणे २९ मा आहारबारर्नु स्वरूप पाढे.
॥ ओजसादि आहार यन्त्रम् ॥ क्यारे!
कोने? आभोग के अनाभोग? -
आहार
ओजमू आहार
| उत्पत्ति समयथो
शरीरपर्याप्ति सुधी
सर्व जीवोने
अमाभोगिक
शरीरपर्याप्त थयाथी भषलोम आहार | पर्यन्त केवलिममुचाते |
३-४-५ समयषीने
आमोगिक-त्रसजीवोने अनामोगिक-पकेन्द्रियने अवश्य, वसने विकल्प
आयोगिक
कषल आहार करणपनिने देष नारक अने|
[अमुक अमुक काठे | केन्द्रिय विना सर्वने
१ विग्रह गतिमा के समय अनाहारक पणाना भोगवेल होषाथी ले न्यून करवा अने हटकभष करी पाछो विग्रहमा अनाहारक पाय माटे.
२ अविग्रहमतिये तेटला काळ सुधो उत्पन यता जीषो माटे मा.
३ अन्य आचार्यो घाणा सक्षु अने प्रोवेन्द्रियपढे जे अणाय छे अने धातु पणे परिणाम पामे छ ते ओजाधार, स्पर्शप्रियषडे जणाय अने धातुपणे परिणमे ते लोमाहार, अने जिला इन्द्रियो स्थूलपदार्थ शरीरमा भखाय से प्रणिहार प प्रमाणे को छ । सूत्रकृतांगतिः )