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२९मुं] ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२४) (४७९) गमान्यावस्तुतोऽनाभोगनिवर्तित एव, (सा०२२३) यदागमः“एगेंदियाणांनो आभोगनिवत्तिए,अणाभोगनिवत्तिए" (एकेन्द्रियाणं न आभोगनिवर्तितः अनाभोगनिर्वर्तितः)इति ।(सा. २२४) द्विक्षणोनो भवः क्षुल्लो, जघन्या कायसंस्थितिः। आहारित्वे गरिष्ठा च, कालचक्राण्यसंख्यशः॥३०॥ इत्याहारः २९ ॥ ___ अर्थ-वली दे आहार लग (जादा नकारनो छ. स्यां हेलो ओजआहार बीजो लोमाहार, अने त्रीजो प्रक्षेपाहार नामनो छे. ॥ २० ॥ तेमा पहेलं (पूर्वभवन) शरीर छोडीने भाजु अयवा वक्रगतिए उत्पत्ति स्थाने जइने जीव पयम समये तेजस (युक्त) कार्मण काय योगवडे औदारिकादि [त्रण] शरीरने योग्य पुद्गलोने ग्रहण करे के, अने बोजा [त्रीजा] विगैरे समयोमा शरीर (रचना) नो प्रारम्भ होवाथी, त्यांथी (वीजा समयथी । यावत् अन्तर्मुहर्त काळ प्रमाणनी शरीरोल्पत्ति सुधी औदारिकादि (वैक्रिय) मिश्रवडे (आहारप्रण) याय ॥२१२२-२३।। कयु छ के-"अनन्तर समये (परभवना प्रथम समये) जीव तैजस(सूत्रः निम्मा 'जोएणं' ए पाठनो पण ज्योत एरले तेजस अर्थ फरवो) कार्मण (काययोग, वडे आहार फरेछे,अने त्यारवाद शरीरनी निष्पत्ति (रचनानी समासि) याय त्या सुधी मिथ (काययोग) बडे आहार करे ॥२४॥ ते सर्व ओजआहार कहेवाय. अहिं ओजम् एटले देहने लायक पुद्गलो, अथवा ओजम् पटले सैजस शरीर, ते रूप ( तैजस भरीररूप ) अथवा तैजस शरीरवडे करायलो (आहार ते ओजाहार) ।। २२ ॥ तथा शरीरोपष्टम्भक (देइने टेको देनार-पददगार) पुद्गलोनो स्पर्शेन्द्रियादि ( त्वचादि )ना स्पर्शवडे जे आहार ( ग्रहण ) कराय ते लोमाहार कहेवाय ।। २६ ।। अने मुखमां कोळीयो नाखवायी जे आहार थाय के ते कावलिकाहार-प्रक्षेपाहार नामनो आहार छे, ए [कवलाहार ] एकेन्द्रिय
१ अहिं " स्पर्श रिद्रय" शबपी स्पशेन्द्रिय मति पण स्पर्शनिमयमा आ. पाररूप रखचा अथवा मानिवृत्ति इन्द्रिय ग्रहण करतो, कारणके माहारग्रह णनो संबंध छ, पण स्पर्शज्ञामरूप विषयप्रवणगो गयी.
२ एकेम्नियोने मुख न होयाथी, देवताओने मानस अभिलाषयो परिणाम पामेला शुभ प्रन्योरूप आभोगिक आहार सर्षकाय घडे प्राण थाय है, अन तेथीदेवताओने मनोभक्षि कहेला छे, तेथी अने नारकीभोने निरन्तर परिणाम पामेला अशुभ द्रव्योरुप आधार होबाथी सेमीने काबलिक आहार डोती मथा.