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॥ श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० १६० )
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ते प्रमाणे तवार्थटीकामां कथुं पण छे के - " ( शंका याय के ) अवग्रहने तो शास्त्रमां एक समयनो को छे, अने तेवा एकज समयमा एकज अवग्रह आत्रा - कारनो (बहु-बहुविधादि धर्मवाळो ) मानवो व्याजवी नथी, कारण काल थोडी होवाथी उत्तर कवाय छे के एत्रात सत्य छे परन्तु नैश्वयिक अने व्यावहारिक एम अब ग्रह वे प्रकारनो छे. त्यां नैश्व० अ० एटले सामान्य बोध अने ते शाखमा १ स arat को ले त्यारबाद एटले नैश्व० अवनी पछी तुर्तज 46 शुं आ स्पर्श छे के अस्पर्श १" एवा प्रकारनी नैश्च० ईहा प्रवर्ते त्यारबाद तुर्तज "आ स्पर्श है" एवो निश्चय थाय ते ( नै० ) अपाय अने ए (नै०) अपाय तेज आगामी (स्यारबाद थता) भेदनी अपेक्षाए ( व्यव० ) अवग्रह एम उपचारथी कहेवाय छे. कार
के ए (नैश्च० अपाय कडे सामान्य बोध थाय छे, जे कारणे अहिंथी पुनः ई.डा ( व्याव० ईहा ) पवर्तशे के आ स्पर्श कोनो के ? अने त्यारवाद " अमुकनो आ स्पर्श छे " एत्री रीते ( व्याव० ) अपाय थशे. वळी एज ( धीजी वार थयेलो) अपाय ते तेनाथी आगळ थनारी ईहा अने अपायने आश्रीने अवग्रह एम फरीबी पण उपचार कराय छे, अने ए प्रमाणे इहने अन्ते पुनः निश्रय रूप अपाय थाय छे. (ए प्रमाणे) वारंवार अवग्रह ईडा ने अपायनी श्रेणि त्यां सुधी चाले छेके ) यावत् एने छेडे निश्चय उत्पन्न थाय छे. अर्थात् ज्यां बीजो धर्म जाणवानी आकांक्षा यती नथी. (ए तात्पर्य छे), कारणके सर्वान्ति अपाय ज थाय छे अने मां पुनः उपचार थतो नथी, माटे जे आ औपचारिक (व्यावहारिक) अवग्रह तेने अङ्गी "बहु ग्रहण करे छे" एम कहेवाय छे. परन्तु एक समय प्रमाण वर्तनारा नैश्च० अवग्रहने अङ्गी करीने ते कड़ेवातुं नथी, ए प्रमाणे सर्वे ( ईहादि अथवा क्षिपादि ) स्थळे औपचारिकने अङ्गीकार करीने कहेतुं " ।
औत्पत्तिकी वैनयिकी, कार्मिकी पारिणामिकी । आ भि: सहामी भेदाः स्युश्चत्वारिंशं शतत्रयम् ॥ ७४९ ॥ न दृष्टो न श्रुतश्च प्राग्, मनसाऽपि न चिन्तितः । यथाऽर्थस्तरक्षणादेव, यथार्थी गृह्यते धिया ।। ७५० ॥ लोकद्वयाविरुद्धा सा, फलेनाव्यभिचारिणी । बुद्धिरौत्पत्तिकीनाम, निर्दिष्टा
१ " सत्यमिति अर्धस्वीकारे " ज्यां पूर्वपक्षमी अर्धीघात स्वीकारवानी होय त्यां 'सत्यं' ए प्रयोग मृकाय छे.