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(४९८) । गुणस्थानद्वारे एकादशोपशान्तमोगुणस्थाननिरूपणम् ॥ (द्वार
अर्थ-जे जीवे विद्यमान (सत्तामा रहेला) कषायोने पण उपशमाव्या छ, अने ( ने कषायो ) विपाकोदय तथा प्रदेशोदयने अयोग्य कर्या छे । एवा ते उपशान्तकपायो वीतराग छद्मस्थ जीवन गुणस्थान ने ते नामवडे ( उपशान्तकपायवीतरागमस्थ ए नामे) कहेलुं छे. ॥९७-९८॥ आ जीव निश्चये उपशमधेणिना पारम्भमां अनन्तानुवन्धि कपायोंने शीघ्र अविरत सभ्यग्दृष्टि अथवा देश
- - - - - - - - १ उपशमश्रेणिनो प्रारम्भक जीव सिद्धान्तानुयायिना अभिप्राये अप्रमत्तसंयत मने काममन्यिकोना अभिप्राये पोथा पांषमा छठा सातमा ए चार गुणस्थानी पैकीना कोइपण गुणस्थान के धर्ततो होय मने ते अनन्तानुवन्धिने उपशमात्रोने सर्पमिरत भाषमांश दर्शनमोहनीयधिकने उपशमाये, हवे अहीं अनम्नानुबन्धिनी उपशमनानो प्रकार कहीये छोये.-अविरत सम्पष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत के अप्रमतसंयत प वार पैकीनो कोई ग, मनोयोग पचनयोग अन काययोग पैकीना कोषण योगमा प्रवर्तनो, अवश्य विशुद्ध पत्री तेजोलेश्या, पद्मलेश्या के शुक्ल लेश्या पैकीनी श्यायुक्त, साकारोपयोगमा उपयोगबाळी, अम्तःसा. गरोपम कोटाकोहीनी स्थिति ससाघाळी पराधर्तमान शुभप्रकृतिआने बांधतो प्रतिसमय अशुभकर्मोना अनुभागने अनन्तगुणहानिये हीन धरतो अनै शुभ कांना अनुभागने अनन्तगुणवृद्धिये पधारतो, एक स्थितिवन्ध पूर्ण थये मीजी नो स्थितियध पस्योपमसंख्येय भागहीन करतो अने मेज प्रमाणे आगळ आगळ हीन हीन स्थितियन्ध करतो, करणो करवाना कालथी पहेला पण अन्तर्मुहूर्त सुधी निर्मल थती चिससन्ततिवाळी पर्ते छ, अने ते प्रमाणे निर्मलपित्तसन्ततिमा अन्तर्मुहत काल रहोने अन्तर्मुहर्त काल प्रमाणयाळा यथाप्रवृत्त ३, अपूर्व २, अने अनिवृत्ति ३ पम घण करणो करे छ, अने चौथी उपशाम्ताद्धा होय छे, समां प्रथम यथाप्रवृत्तकरणमा प्रवेश करमो दरेक समये अनन्तगुण विशुद्धिये प्रवेश करे ड्रे, अन्तमुहूसंप्रमाण ययाप्रवृसकरणकालमां त्रिकालवति अनेकजोधांनी अपेक्षाये दरेक समये असंख्येय लोकाशाशप्रदेशप्रमाण विशुद्धिस्थानको होय छ, प्रतिसमययति त अध्यवसायस्थानको शि. शुधिमां षटस्थान पतित फया छे, तेमा पहेले समये जे सर्व जघग्यविशुद्धि ते सर्यथी स्तोक जापाबी, तेथो बीज्ञा समयनी जवन्यविशुद्धि अनन्तगुणाधिक तधो पण श्रीजा समयनी जघन्यशिशुद्धि अमरसगुणाधिक प प्रमाणे यावत