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#] ॥श्री लोकमकाशे तृतीया सर्गः (सा. २३८) (५४३) मिथ्याटिमोर्नु द्रम्पप्रमाण जाणषु, पाकीना जीरो तो आटामां लूणनी जेम. सर्व * गा करीये तो पण असंख्यातान छे.
, (६-७) प्रमत्तसंयतगुणस्थान अने अप्रमत्तसंयतगुणस्थान ए वे गुणस्यानवति जीवो संख्याता ज होयछे, कारणके ने गुणस्थानको मात्र गर्भज पर्याप्तमनुष्यगतिना जीवोने ज होय छे, तेमां पण कर्मभूमिना विशिष्ट अध्यवसायविभु. दियुक्त मनुष्योने होय; पांच भरत. पांच ऐरवन अने पांच महाविदेव क्षेत्र ए पैदर क्षेत्रो [ कर्मभूमि मां मली जघन्यथी अप्रमत्तसंयत कोटिशतसंख्याये अने उत्कृष्टयी पण कोटिशनसंख्याये तथा प्रमत्तसंपत जघन्यथी कोटिसहसपृयक्त अने उत्कृष्टथी पण कोटिसहपृथक्त्व संपाये जाणवा, जघन्य करता उत्कृष्टमां अधिक समजवा वेथी नव सुधीनी संख्याने सिद्धान्तपरिभाषाये पृथक्त्व कहेवाय छे.
द्विमभृतिरानवभ्यः पृथक्त्वम् । इयं सामयिकी संज्ञा, जयन्पकाले एटले वीशं तीर्थंकरभगवन्तो विचरना होय त्यारे वे कोडसहस्र मुनियों अने ये कोड केवलिभगवंतो होय अने उस्कृष्टकाले ज्यारे १७० एकसोसीत्तर नीयकरभगवतो विच| रता होय त्यारे नवकोटिसहस्र मुनिभो अने नवक्रोड केवलिभगवंतो विचरता होय छे. । उपशामक (उपशमश्रेणिमत] जीवोनी अपेक्षाये (८-९-१०-११)आठमां
अपूर्यकरणवाळा,नवमा अनिवृत्तिषादरसंपरायवाळा, दशमा मूक्ष्मसंपराय| बाळा अन अगीयारमा उपशान्त मोहवीतराग छप्रस्थगुणस्थानबाळा जीवो
अनुव होवाथी कोइ फालविशेषे न पण होय अने होप तो मत्येकमां जघन्यथी एक वे | अण पण, होय भने उत्कृष्थी प्रवेशनी अपेक्षाये चोपन होय, अर्थात् तेटला
जीवो उपशमश्रेणिमा प्रवेशकरता पमाय,अने उपशमश्रेणिना संपूर्णकालनी अपेक्षा• ये प्रतिपद्यमान तथा मतिपश्नमीवोनो विवक्षाथी संख्याता होय. एटलेक -उपशम! श्रेणिना असंख्यातसमयात्मक अन्तर्मुहतकाळमां जुदा जुदा प्रवेशकरता सर्वनी पण
संख्या मेळवता संख्याताज जीवोथाय. शंका-अन्तर्मुहर्तममाण उपशमश्रेणिना प्रत्ये, फगुणस्थानना कालमां असंख्याता समयो होय छे. तो जो दरेकसमये एकएक जीव । प्रवेश करे तोपण संपूर्णश्रेणिकालने उद्देशी असंख्यातसमयो होदाथो असंख्याता - जीवो पण ते ते मुणस्थानोमां पमावा जोइये. तोपछी नेत्रण यावत् उस्कृष्टथी चो, पन प्रवेश कर्ये छते तो असंख्याता जीवो थाय. उत्तर-है शिष्य ? आ तारी १ को क स्थळे जघन्यथी १० तीर्थकर होवान पण यताये छे, ते अपेक्षाये साधु तथा फेवलिनी संख्यामां पण मारतम्य जाणवु.
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