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(८४) !! भर्मास्मिकाय-अधर्मास्तिकायस्वरूपविचारः ॥ काळमा विद्यमान छे. ॥ १६ ॥ भावधी वर्ण--गंध-रम- अने स्पर्श रहिन छ, अने गुणथी ते (जीव पुद्गलने) गति करवामां सहाय आपवाना स्वभाव वाळू कहेल छे. ॥ १७ ॥ आ लोकमां स्वभावेज गति करता जीव पुद्गलोने मत्स्यने तरचाया जेम जळ तेम आ धर्मास्तिकाय सहाय करे छे, ॥१८॥ चळी जीवोने तो गमन आगमनादि चेष्टा (मिया)मां अने भाषा ग्रहण पनयोग-वचनयोग अने काययोग इत्यादिमों पण ए कारणिक थाय के. ।१९।। आधर्मा. अकोका नहि होवाधी स्यां जीच अने पुद्गलनी गनि यह शकती नथी अने ए धर्मास्तिकायना अभाचे लोक अलोकनी व्यवस्था पण न संभवे ।।२०॥तथा न्यक्षेत्र काळ अने भाववडे धर्मास्तिन्नो साथे जोडले जन्मेलो भाइ सरखो अधर्मास्तिकाय पण छे, (एटले. द्रव्य, क्षेत्र, फाल, भावयी अधर्मास्तिकाय, स्वरूप धर्मास्तिकायना जेवुज छ ) परन्तु गुणमा हफावत के. ॥ २१ ॥ कारणके ए अधर्मा० मत्स्पने स्थिर थवाओ जेम दीपादि स्थळ तेम जीव पुगलने स्थिर धवामा ( अधर्मा० ) अवलवन ( आधार ) भूत छे. जे कारण माटे अलोकमा अधर्मा नथी तेथी त्यां जीवपुद्गलोनी स्थिति पण नयी, ॥ २२ ॥ आ अघमौस्तिकाय वेसवामां--उभा रहेबामा, शयन करवामा, आलंबन लेवापां, अने चित्तनी स्थिरता वगेरे स्थिर कार्यों कारणरूप थाय छे. ॥२३।। आ स्वरूप अर्थथी श्रीभगवतीजीशतक १३मे ४ या उद्देशे का छे. नीवो अने पुद्गलो गति अने स्थिति परिणामवाळा धये छतेज ए पत्र सहाय करनारा छे, अने जो तेम न होय वो जीव अने पुद्गलोनी हमेशां गति थया करे प्रथा स्थिति रहया फरे. ॥ २४ ॥ (धर्मा० अधर्मा० वर्णन संपूर्ण)
१ जो था न होय तो भाषादि पुदगलोनी मतिना अभात्र भाषाग्रहण अने मनयोगादि कापण न हो शके माटे भाषा-मन-वचन-त्यादिमां धर्मा० कारणरूप छे.
२ कोहक बस्नुने धरी-पकडी राखखामा
३ भाषार्थ प छे के-जीव अथवा पुदगल पोताना स्वभाषधीज गति स्थिति फियामां बर्तता होय ग्यारे ए बने द्रव्यसहायक थाय, परन्तु जीय पुदगल स्वभाषथी गति स्थिति न करता हाय, अने ए बे द्रष्य पओने प्रेरोने ज गति स्थिनि करायता होय तो ए जीव पुद्गटोनी हर हमेश गति अथवा स्थितिज रखा करे अने पम थषाथी परस्पर गति स्थितिमा सांफर्यभाष पण उपजे, माटे वस्तुतः पवे. वन्य जीव पुद्गलोने गति स्थितिमा प्रेरणा करता नथी पण मात्र सहायकज थाय छे.
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