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________________ २० ) ॥ श्रीलोकमकाशे तनीयः सर्गः ॥ (सा० १०३) (२७१) अने सम्यक्त्वने यात करनारा छे, तथा ( अनुक्रमे ) देवपणु-मनुप्यपणुनिर्यञ्चपणु-भने नरकगति आपनारा के. ॥४५॥ वळी प्रज्ञापनावृत्तिमा कयु के के-जेनाथी-जे कारणयी प्रणे जगत्मां जीवो अनन्त संसारनो अनुगन्ध करे है, ने कारणयी " अनन्तानुबन्धि" प नाम दरेफ (क्रोधादि) साये जोडेलुं छे. ॥४१६ ।। वली एन “ सयोजना " एव॒ धीजु पण नाम के. जे कपाय मनुष्यने (नीबोने) अनन्त संख्यावाळा (एटले अनन्त ) भवानी माये संयोजयति-जोडे छे, माटे ते कषायोने संयोजना अथवा अनन्तानुबन्धि पणु' कहेल्छे ।। ४१७ ॥ वळी जे कषायांना उदयपी जीवोने आ संसार. मां अल्प प्रत्याख्यान ( त्यागवृत्ति) पण उदयमा आवतुं नथो ने कारणथी ए कपायोमा 'अप्रन्याख्यानी" ए बीजु नाम जोडेल ।। ४१८॥ तथा अहिजे मय सावधनो [ अशुभयोगनो) स्पाग तेने “मत्याख्यान ५ फहेळ छे, ते प्रत्याख्यानने आवस्वाथी ते कपायोमा प्रत्याख्यानावरण पत्रीजु नाम पण जोडेलु छे. ॥ ५१९ ।। वळी जे संविज्ञ ( संसारथी विरक्त एका ) अने सर्व पाप रहित एवा नि महात्माने पण कंडक जाज्वल्पमान करे ले, ते कारणथी अशान्ति करनार एचा ने कषायो संज्वलन कहेपाय छे. ॥ ४२० ॥ बीजे ठेकाणे पण का छे के-जे कारणयी शब्दादि ( शन्द-वर्ण-गन्ध-रस-ने पशरूप ) विषयो पामीने (माप्त धनां) वारंवार ( कषाय ) उद्दीपन (प्रगट } थाय के ते कारणर्थी चोचा कषायोनु मज्वलन एवु नाम फहवाय छे. ॥४२॥ स्युः प्रत्येकं चतुर्भेदा, भेदाः संज्वलनादयः । एवं षोडशधेकैकश्चतुःषष्टिविधा इति ।। ४२२ ॥ यथा कदाचिच्छिष्टोऽपि, क्रोधादेर्याति दुष्टताम् । एवं संज्वलनोऽप्येति, क्वाप्यनन्तानुबन्धिताम् ॥ ४२३ ॥ एवं सर्वेष्वपि भाव्यम् ॥ तत एवोपपद्यतानतानुबन्धिभाविनी । कृष्णादेर्दुर्गतिनं, क्षीणानन्तानुबन्धिनः संसारविरक्त अने सर्वथा पारिधमार्गमा उद्यमशाळा पन्ना मुनि महात्मा मे पण अट (अनु) माममी पामोन करक रागभाष, अने अनिष्ट सामग्री परे करक असचिभाष पाय छे ते संपलनकायना उरथयाज, २ (म०संक्रोध-२ संप्रत्याक्रोध ३ सं०अप्र०कोध- स० अनंताक्रोध इत्यादि रोते १६ ने चार गुणषाथी ६५ भदो जाणधा.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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