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३०) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२६) ४८५) द्रसम् ॥ ५३ ॥ इति द्वितीयं ॥२॥
अर्थ-जे कारण माटे अनंतानुबंधि कषायनो उदय अहिं आय एटले औपशामिक नामना (स्वरुप) सम्यकत्वना लाभने सादयेत-हानि करे ते आयसादन (सास्वादन) कवाय छे.जे कारणथी अहिं अनंतानबंधीनो उदय थतां जयन्पथी एक समये अने उत्कृष्टथी (उपशम सम्पकत्वना काळनी) ६ आवलिका वाकी रखो उप० सम्प० चाल्यु जाय के ॥ ४२ ॥ पृषोदरादिमा पाट होबाथी ( आयसादन शब्दमांथी ) य कारनो लोप थये छने आसादन एवो शन्द धाय के. अने ते ( आसादन शब्द ) अनंतानुबंधी कपायना उदयनो वाचक छे. (अर्थात आसादन एटले अनंतानुबन्धिनो उदय ). ॥ ४३ ॥ अने आसादने करीने युक्त जे पाणी होय ते सासादन कहेवाय है अने तेवो जे सम्यग्रहष्टि होय (ते सासादन सम्यग्दृष्टि कवाय ) अंनत जीवनू जै गुणस्थान ते सासादन सम्यग्दृष्टि नामर्नु वीर्जु गुणस्थान कहेवाय, ॥ ४४ || ते आ पमाणे-पूर्व (२५मा द्वारमां) कहेला उपसम सम्यक्त्वनो जघन्यथी १ समय बाकी रहो, अने उत्कृष्टयो ६ आवलिकाओ बाकी रह्ये, कोइक कारणथी महा भयानक स्थितिनी जन्पत्ति सरखो अनंतानुबन्धि कपायनो उदय कोइफ जीवने याय छे ॥४४-४५।। हवे ते अनंतानुबन्धीनो उदप थये छते ते जीव सासादन सम्परादृष्टि गुणस्थान स्पर्श छ ( पामे छे) । ४७ ॥ अथवा उपशम श्रेणियी पडता कोइ पण जीवने पूर्वनी पेठे (समय कन्या प्रमाणे) ए गुणस्थान औपनमिक सम्यक्त्वने अन्ते थाप छे । ४८ ॥ अने त्यारवाद ( ते सास्वादननो काल पूर्ण थये ) ने जीव अवश्य मिथ्यावज पामे, कारणके बीजे पगथीएथी पडतो पहले पगथीएन जाय ॥४१॥ वळी आ गुणस्थान सास्वादन सम्यग्दृष्टि नामे करीने पण कई बाय छे, त्यां पण्डित्तोए आ प्रमाणे तेने अनुसरतो अर्थ कयो छे ।।५८|| जे जोत्र वमन कराता (पडना) सम्पत्तवना आस्वादन (म्बाद) युक्त होय ते जीव माम्बादन सम्यग्दृष्टि कहेवाय ॥५१॥ जेम जमेली क्षीरने माखी विगेरेना कारणथी वमन करतो व्याकुळ थयेलो जीव ते क्षीरना रसनो कंडक आस्वाद पाम २. ॥ ५२ ॥ तेम आ जीव पण भ्रान्तिमय चित्तवाळो मिथ्यात्वनी सन्मुख श्या छतो सम्परत्वनुं वमन करतो कइक सम्यक्त्वना रसनो स्वाद पामे ले. ॥५॥ ए प्रमाणे श्रीजु सास्वादन सम्यग्दृष्टिगुणस्थान को. ॥२॥
पूर्वोक्तपुञ्जत्रितये, स यद्यर्धविशुद्धकः । समुदति तदा