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२९] ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २२०) (४७) अधिक समयनी वक्रगति नधी. भने स्थावर जीवोने तो वक्रगति चार अने पांच समय सुधीनी पण होय ॥ स्पा बार सम्पनी वक्रगति भा प्रमाणे-प्रस नाडीनी बहार अयोलोकनी विदिशामांयो दिशामा प्रथम समये जाय, अने बीजे समये त्रस नाहीमा प्रवेश करे ॥ २॥ प्रोजे समये ऊर्ध्वलोकमां जाय, अने चोथे समये त्रस नाडोमांथी निफळी दिशामा रहेला पाताना उत्पनि म्याने जाय ॥ ३ ।। ( ए रीने विदिशाथी दिशामां उपजवानी गनि कही, अने हर्ष दिशामांथी विदिशामा उपजवानी रीत दर्शा छ के-) दिशाधी विदिशामां जनां प्रथम समये ( दिशामांथी निफळी ) त्रस नाडीमा प्रवेश करे, बीजे समये उर्व या अधोलोकमां जाय, त्रीजे समये त्रस नाडीथी बहार निकले, अने चौथे समये विदिशामां उपजे ॥४॥ तथा ज्यारे पूर्वोक्तरीने कोड वग्वन कोइ जीव (नाही बहारनी) विदिशामांथी (निकळी नाडी बहारनी) विदिशामां उपजे नो ने एक समयना अधिकपणाथी पांच समयनी वक्रगति कोइ (कोइ) ठेकाणे कही है. ॥ ५॥ श्री भगवतीजीना १४ मा शतकना १ ला उदंशानी वृत्तिमा "(आ चार समयनी विग्रागनिन स्वरूप बहुलता आश्रयी कहा के. अन्यथा पके. न्द्रियोने पांच समयनी विग्रह पण धाय (संभये), ते आ प्रमाणे अधोलोकमा प्रस नाहीथी बहार) पहेले समये विदिशाथी दिशामां, बोजे समये अस नाडीमां प्रवेश करे, जीजे समये अज़लोकमां, चौथे समये नाडीथी बहार नीकले भने पांचमे समये विदिशामां उपजे. ॥ ६ ॥ " आ प्रमाणे कयुं थे, परन्त नेज श्री भगवतोजीना ७ मा शतकना १ ला उशा ( नी टीका ) मां तो-पांच समयनी विग्रहगतिना सम्बन्धमा आ प्रमाणे कहेले के (बीजाओ तो कई छे के ज्यारे विदिशामांथी विदिशामां ज उन्पन्न थाय त्यारे चार वक्र पण संभवे छे, तेमां त्रण समय पूर्वानी माफक (नाडीनी बहार विदिशामांधी दिशामा पहेले समये, बोजे समये नाडीमा प्रवेश, वीजे समये ऊर्बलोक गमन) भने चोथे समये नाहीथी बहार समश्रेणिमा नाय अने पांचमे समय उत्पनिस्थाने आवे मां पहला चार समयमां चार वक्र थाय अने नेमां अनाहारकप" छ, परन्तु) "आ वात सूत्रमा दर्शावी नयी, प्रायः ए रीने अनुत्पत्ति होवाधी (अर्थात् परीने पांच समयनी विग्रहगतिय प्रायः उम्पत्ति न होय.)
१ आनुपू नो उत्कृष्ट उपय घार ममयनो को छ, ने पांच मायनी उत्पत्तिवाली पतषकामां मम . पन माट 'एक बाउनहारकः' ५ मृत्रमा