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(४७०) ॥ आहारकहार-यासङ्गिकसंघानादिनिरूपणम् || द्विार कुटिल (ऋजुगति अने वक्रगति ) एम चे मकारनी गति होय छे, त्यां पहेली - ऋजुमति एक समय पमाणनी के ॥ ७७ ॥ ज्या जीवने उपसवान स्थान समश्रेणिए रहेल होय त्यां जीव ऋजुगतिकडे एकज समयमां जाय ॥ ७८ ॥ अने तेज समये ते जीव परभवर्नु आयुष्ययेदे अने परभवनो आहार करे. आ ऋजुगतिमा निश्चय अने व्यवहार बन्नेनो मत एक सरखो के. ॥ ७९ ॥ अने पक्रगति मां बीजा समये व्यवहार नयनी अपेक्षाए परभव- आयु 'उदय आवे. अर्हि तास्पर्य आ प्रमाणे हे के-।। ८० || स्क्रगतिना सन्मुखपणानी अपेक्षाए पूर्वभवना छल्ला समयने व्यवहारथी केटलाएक आचार्य वक्रगतिनो प्रथम समय गणे छे ।। ८१ ॥ अने तेथी नेओने मते परभवनो प्रथम समय व्यतीत यया बाद
आ वीजा समयमा निश्चय परभरर्नु आयुष्य उदय आवे छे. ॥ ८२ ॥ कथु छे के-जुगतिना प्रथम समये परभवनुं आयुष्य अने आहार उदय आवे छे, वक्रगनिमां बीजे समये परभवनुं आयुष्य उदय आवे ॥ ८३ ।। ॥ अने निश्चयनयनी अपेक्षाए तो जीव जो के ( पूर्वभवना ) अन्त्य समये (वक) गतिनी सन्मुख छे तो पण (ते समये) पूर्वभव सम्बन्धि सहनत अने परिशाट होवाथी ।। ८४ ॥ ते समय पूर्वभवनोज संभवे हे पण ( वक्रादि ) गतिनो नहि, कारणके पूर्वभत्र सम्बन्धि शरीरनो सर्वाश परिशाट अग्रभवना प्रथम ममयेन डोय २. ॥ ८५ || कारणके "परभवना प्रथम समये एकलो परिशाट होय' ए प्रमाणे सिद्धान्तनु वचन होत्राथो एज समये ते आयुष्य सहित गति उदय आपे थे, माटे परभवन आयुष्य तो वक्रगतिमां पण प्रथम समय ज उदय आवे छे. ॥८६॥ हवे स्यां सिद्धान्तमा सङ्कात अने परिशानुं स्वरूप आप्रमाणे -संघात १,परिशाट २,अने संघात परिशाट ३, समुदित पणे-एम ३ फरण (क्रियाभेद) औदारिकादि शरीरमां कहेलां के ।। ८७ ।। त्यां प्रथम समये सर्व आत्मपदेशो वडे (वा सर्वथा) पुद्गलोर्नु ग्रहणज मात्र होय छे, अन्त्य समये स था त्यागज होय है. अने वीजा विगैरे समयोमा संघात अने परिशाट बेउ साथे थाय छे. ॥ ८८ ॥ जेम तपी गयेली तेल या घीवाळी कहाइमां ( था तवीमां ) नाखेली पूरी ( वा पृडलो तेल वा घीने प्रथम सर्व बाजूथी ग्रहण करे थे, परन्तु त्याग करे नहि ।।८९॥अने त्यारबाद किश्चित् तैलादि ग्रहण करे अने किंचित् स्याग करे, कागणक पुलोनो स्वभावज मलवा अने विखरवारूप छे । ९० ॥ तेवीज रोते
१ अने आहार तो पफगतिना योजा श्रीजा अने चोथा समयमा अनाहारकपणु होयाथी न होय एम अध्याहारथी जाणवू.