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________________ ३१मुं) ॥ श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [ सा० २३१) (५.०३) अविरत - देश विरत - प्रमत्त-ने अपमन ए चारमांनो कोइपण होय एम कड़े छे " प्रथमना ( वर्षभनाराच, ऋषभनाराच अने नाराच) त्रण सङ्घयणने धारण करवा बाळा जीवो उपशमश्रेणि अङ्गीकार करें ले, पण अर्धनाराचादि (कीलिका छेवट्ट) १. अनन्तानु० ४ अने दर्शन ने उप नियोश्रेणि, अने शेष २५ कषायने उपशमावा ते चारित्रमोदोपशमणि एम उपशमश्रेणि से प्रकारभी छे. हवे अनन्तानु० ४ नी उपशान्ति ४-५-६-७ मांना कोइरण गुणस्थाने होय छे, शेष मिध्यात्यादि त्रणी उपशान्ति ७ मे गुणस्याने, अने चारित्रमोहनीय उपशमश्रेणिनी प्रारंभ में अने सर्वापशान्ति ११ मे होय छे. आ प्रकार होवाथी अपेक्षा पूर्वक चांथेथी सातमे वा सातसे पा आदमें उपशमश्रेणिनां प्रारंभ कडेवामां कोइ जानो विरोध संभव नथी. मां वर्तती छतो गुणक्रमानुषिद्ध उशना संक्रमे करी संपूर्ण अनन्तानुयन्धिनो बिनाश करे. मात्र नीचेी आवलिकामात्र सुकोचे ते पण स्तियुकरमे करी देवाती प्रकृतिओमां संकमाये अन्तर्मुहूर्तथी आगळ अनिवृत्तिकरणना छेडे वाकीना कमना पण स्थितिघात रखघात गुणश्रेणिओ न करें परन्तु मोहनीयनी चोवोशनी सत्तावादी स्वभावस्यज रहेछे, आ प्रमाणे अनन्तानुबन्धिनी त्रिसंयोजना ( क्षपणा ) जाणवी. , इथे त्याला वर्शनकिनी उपशमना करे ते आ प्रमाणे – प्रथम मिथ्यात्वमोहनीयनी उपशमना करनार वे प्रकारना जीध होय, सम्यक्बोत्पादकामां मिथ्यादृष्टि जीव होय १ अने उपशमश्रेणिना प्रारंभकाळमां क्षयोपशमसम्यग्वष्टिजीव होय २, अने मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्त्वमोहनीयनी उपशमना करनार तो मात्र क्षयोपमसम्यग्दृष्टित दोष के अह तो दर्शन त्रिकनी उपशमना करनार क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि लंबाना छे. ते पण पूर्वोक गुणवान सर्वविरत संयतमहात्मा अ दर्शन त्रिकमी उपशमना अन्तर्मुहूर्तमाथ काले करे छे. दर्शनचिकनी उपशमना करती खते पण श्रण करणनो विधिमी माफक जाणत्री, यावत् अनिवृत्ति करणना कालना संख्याता भागी गये छते अन्तरकरण थाय छे। अन्तरकरण करता छतां चेदानी सम्यक्त्वमोनीयनी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थापन करे मिध्यान्य अने मिश्रitter आलिकामात्र स्थापं प्रणेतुं पण उकेरातुं वदीयं सम्यक्त्व मोहनीयती प्रथम स्थितिमां नांखे, मिथ्यात्व अने मिश्रमांनीयनुं प्रथम स्थितिनुं युं सम्यक्त्रमोहनीयना प्रथम स्थितिना दलिकम किकमे संक्रमाचे, सम्यक्यमोहनीयनी प्रथम स्थिति विपाकोदयथी क्रमे क्रमे यथये छले उपशमस्यग्दृष्टि थायले, मिथ्यात्वमोहनीयादि त्रणेना पण उपस्थि सिना दलियानी उपशमना अनन्तानुबन्धिना उपरनो स्थितिना वहियानी उपमनानी प्रेम जाणषी आ प्रमाणे दर्शन प्रिकनी उपशमना समजयो.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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