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९) ॥ श्रीलोकप्रकाशे हनीयः सर्गः ॥ (सा. ६) (१७७ ) जानोते । अन्तर्मुहत्तै द्वेधाऽपि, स्थितिराहारकस्य च । अनादिके प्रवाण, सर्वतेजसकार्मणे ||१९२।। सावसाने तु भव्यानां, सिद्धवे तवभावतः।अभव्यानां निरन्ते च,पाना मुक्तिवर्मनि १९३।।
॥इति स्थितिकृतो विशेषः ।। अर्थ,-७ स्थितिकृतभेदः -औदारिकशरीपनी जयस्थिनि भन्न महत्तनी छे. अने उत्कृष्टस्थिति । परयोषपनी के ते युगलिकनियंत्र अने युगलिकमनुष्यनी अपेक्षाए जाणवी, ।। १८६ ।। जन्मवै क्रियनी (भवधारणीयक्रियनी) जघ० स्थि० १०००० वर्षप्रमाण अने उत्कृष्ट ३३ सागरोपम छे, ।।१८७|प्रया कृत्रिम बैंक्रियनी पण जब स्थि० अन्तमुंहत छे अने उत्कृष्ट स्थिति नो श्री जी. वाभिगमसूत्रमा आ (नीचे लवेली) गायावडे कहीं छ॥१८॥"नारकजीव. ने विषे अन्तर्मु०-तिथेच अने मनुष्यमा ४ मृहत-अने देवोषां उत्तरविकुर्वननो काळ उत्कृष्ट अर्धमाम छ" ।। १८९॥ श्रीभगवतीजीमा नो वायुकायने-सद्धि निर्यचने-अने संमिमनुष्यने पण उत्तरक्रियनी उन्कस्थिनि अन्न मुं० कही छे, ॥१९७।। श्रीसूप्रकृतांग (वीजाअग) मां नो-(मूळगाथा)-''महासंतापकारी,भाकाशमा रहेलो एक (सरखो) दीए वैक्रिय पर्वत घणो उंगे , त्यां घणा क्रूरकर्मवाळा नारकजीवो हजारो मुहर्त प्रमाण प्रणाकाल सुधी हणाय छ, १९१" “ गाथामां “ नाम " शन्द संभावना अर्थमां के. एटल के एप संभावना थाय छे के नरकने विषेप आकाशमां (देखानी होय नेवो उचो)महाभितापे महादुःख आपनारो एक-एक शिलाशी रचायलो अने दीर्घ. वेयालिए एटले बैंक्रिय अर्थात परमावामीओए पनावेलो पर्चन छे त्यां नरक स्थानोन अंधकार स्वरूप हवाथी हाथ टेकाची टेकावीने उपर चढ़ना घणा क्रूरकर्मधामा नारकजीवो ह. जारो मुहूर्तोंथी आगळ परं-उत्कृष्ट अर्थात् सहस्र शब्द उपलक्षण होवाथी धणा काळसूधी हणाय है-पीदाय हे. टोकैकदेशार्थः । अहि परमाधर्मी देव चिकुला पर्वतनी अर्धमासथी अधिक स्थिति पण कही एम जाणवू. एमां नम शृं के ते श्री