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________________ ३०) ॥श्रीलोफरकाशे तृतीयः सर्गः (सा० २३८) (५६३) क्षायिकचारित्र अने दानादि पांचब्धि अने पारिणामिफभावमा जीवत्व भव्यत्व ए भेदो होय छे, औपशमिकभाव मोहनीयफमनो ज थाय छे अने क्षायोपशमिकभाव चार घातिकर्मोनो थाय छे, केवलिभगवंतोने ते कर्मोनो क्षय ययेलो होबाथी ते वे भावो होता नथी.आप्रमाणे गुणस्थानकोमा भाषद्वारविचारणा करी. (९९ अल्पायहत्यबार)उपशामक,उपशामक एटले उपशमश्रेणिगत आउk नवर्मु, दशर्मु अने अगीमार मुंए चार गुणस्थाने वर्तता जीवो सर्वथी स्तोक होय, तेनाथीक्षपक एटले क्षपकश्रेणिगत ८-९-१०-१२ अने चौदमुं अयोगिकेवलिगुणस्थान ए पांच गुणस्थाने वर्तता संख्यातगुण होय, अल्पबहुत्व ज्यारे उत्कृष्टपदे ए गुणस्थानोमा जोवो विद्यमान होय ते कालनी अपेक्षाये जाणवू, चीजे काले तो कोइ वखत ते गुणस्थानोए जीयो न पा होय मनमः झोपलो रोनां या कोड बखत क्षपक जीवो वधारे तो कोई वखत उपशामक पण पधारे होय एम अनियमित अल्पवहुल होय, क्षपक करता सयोगिकेलिओ संख्येयगुण, ते करतो अप्रमत्चगुणस्थानवाळा संख्येयगुण, ते करतां ममत्तगुणस्थानवाळा संख्येपमुण, ते करतां देशविरतमुणस्थानवाळा असंख्येयगुण, ते करतां सास्वादन गुणस्यानवाळा असंख्येयगुण, आ अल्पवहुत्ल पण सास्वादनगुणस्थानमा ज्यारे उत्कृष्टपदे जीवो विद्यमान होय ते अपेक्षाये जाणवं, अन्यथा कोइ वखत सास्वादनगुणस्थाने जीवो न पण होय, होय तो जघन्यथी एक ये वण आदि होय, पण ज्यारे उत्कृष्टपदे जीवो होय त्यारे क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भागवति आकाशपदेशराशि प्रमाण देशविरत तिर्यंच तथा मनुष्यजीवो होय छे, ते करतो असंख्यगुण मोटा प्रमाणवाळा क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भागवति आकाशमदेशराशिषमाण सास्वादनवर्ति जीवो होय छे, तेनां करता मिश्रगुणस्थानवाला जीवो असंख्यानगुण वधारे होय, आ अल्पबहुत्वा पण उत्कृष्टपदे मिश्रगुणस्थानमा जीवो विद्यमान होय ते अपेक्षाये जाणवं, अन्यथा उपरनी माफक कोइ वरवन मिश्रगुणस्थानके जीवो न पण होय अने होय तो जघन्यथी एक ये त्रण विगेरे पण होय एम अनियमित अल्पबहुत्व होय, पण ज्यारे उत्कृष्ठपदे मिश्रगुणस्थाने जीवो होय स्यारे सास्वादनगुणस्थाने उत्कृष्टपदे जेटला जीवो होय ते करतां मिश्रगुणस्थाने असंख्येयगुण मोटा क्षेत्रपल्पोपमासंख्येयभागवति आकाशमदेशराशिप्रमाण होय छे, ते करतां अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवाळा असंख्येयगुण वधारे होय छे. मिश्रगुणस्थाने उत्कृष्टपदे वर्तनार जीवो करता असंख्येयगुण मोटा प्रमाणवाला क्षेत्रपज्योपमासंख्येयभागवति आकाशमदेशराशिप्रमाण जीवो होय छे, अविरतसम्यग्दृष्टि करतां नारक मनुष्य अने देवगति ए त्रण गतिओमां बर्तता मिथ्याष्टिओ
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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