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॥ कोकाशे टीका वर्ग
(क) ( १७३ )
अर्थ - भवनपति व्यंतर - ज्योतिषी - सौधर्म- बने ईशान देवलोकना देवोनी जवते. अवगाहना अंगुलना असंख्यासमा भागनी जाणवी ।। १५५ ।। तेनी भावना भा प्रमाणे - पोतानां रत्न भने आभरणादिकने विषे ( अथवा रत्ननां आभूषणो विगेरेमा ) ममत्वभावचडे बंधायेळा एवा ए देवोनी उत्पत्ति त्यांन ( एटले रेननां आभूषणोपांज ) पृथ्वीकायादिपणे यवाथी जय० अवगाहना अंगखासंख्यतम भाग होय ॥ १५६ ॥ अने उत्कृष्टथी अधोलोकमा ३ जी सैलानामनी नरक पृथ्वीना सळीया सुधी (अव०) त्यां गयेला (परमाधामी विगेरे ) देवोपांना केटलाक देवोनुं त्यां मरण थवाथी होय छे. ।। १५७आवळी सिग्ळोकमां ए देवोनी उत्कृष्ट ० अवगाहना छेल्ला स्वयंभूरमण समुदना अन्त्य ठेहानी (घनोद धिविगेरेण वलयनी नजीकमी अथवा अलोकना किनाराथी १२ योजन अर्वाक् अंदर रहेली) पेविकाधी, अने ऊर्ध्वलोकमां ईषमाभारा (सिद्धशिला) पृथ्वीना उपरना तळीया सुधीनी होय छे, ॥ १५८॥ कारण के एटलेमृधी ए देवो पृथ्वीकायपणे उत्पन्न थायले, अने त्यांथी आगळ (वा० ) पृथ्वीकायादि जीवोनो अभाव छे, || १५९ ॥ श्रीजा सनत्कुमारकल्पादि देवलोकना (३ जाथी ८ मा कल्प सुधीना ) देखोनी जघ० तै० अवगाहना अंगुलना असंख्पातमा भागप्रमाणनी होय . १६० ते आ प्रमाणे जाणवी के सनत्कुमारादि देवो स्वभावथीज निश्चय गर्भजतिर्येच अने गर्भज मनुष्यमां उत्पन्न याय है, परन्तु एकेन्द्रियादि जीवोमां उत्पन्न था। नथी || १६१ | मेरुपसादिना वाव विगेरे प्रकाशयोमां जलक्रीडा करता सनत्कुमारा दिदेवो पोताना आयुष्यनो क्षय वायी ।। १३२ ॥ ज्यारे अति नजीक प्रदेशमां म रस्यादिपणे उत्पन्न याय त्यारे ए देवोनी जघन्य अवगाहना (अंगुर असं० भाग) होय के अथवा बीजीरीते ए जघ० अवगाहना आ प्रमाणे होय छे। १६३|| के सनत्
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९ ए आभरणो पण जो परेलां अथथा बीजी को रीते शरीरने स्प से करो रहेलां होय ने त्यां उपजे सो जघ अवगाहना संभव | अन्यथा अं
गुलो संख्यातमो भाग अवगाहना होय.
२ मतान्तरे देषोनुं अधोगमन ४ थी अंजणापृथ्वी सुधो पण क्रे. ३ त्यांची आगळ पृथ्वीकायादि जीवो से. परन्तु ते सूक्ष्म छे अने देवो मात्र बादरपृथ्व्यादिमां ज उत्पन्न थाय छे, माटे चादर पृथ्व्यादिनां अभाव जाणवो पण सर्वनो नहि.
४ प्रथमनी रीत गर्भज तिर्यचमां उत्पन्न थाय ते वखती दर्शात्री अने इसे मनुष्यमां उत्पन्न थतां जघ० अवगाहना केषी रीते होय ते दर्शाया माटे अथवा कहले.