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२४९) ॥श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ [सा० १३९] (३२३) अने त्रीजुं अनियत्तिकरण नामे छे, ॥६००॥ आगळ कहवाशे वेवा स्वरूपवाळा ग्रंथिना स्थान मुधी (अर्चाक) पहेलुं करण वर्ने छे. ग्रंथीनो मेद यती वरखते चीजें भने ग्रंथी मेदाइ गया बाद श्रीजु फरण भवन के ॥६०१॥ भव्यजीवोने यथायोग्य ए त्रणे करण संभवे छे, अने अभध्यजीवोने तो एक हेलज करण संभवे छे. ॥ ६०२ ॥ जीव हेला करणवडे धान्यनो पल्प (साटो) अने पर्वतनी नदीना पथरा वगेरेना दृष्टान्त कर्मनी लघुता (भोछापणु) कर के. (ते दृष्टांनो आ प्रमाणे-) ॥६०३ ॥ जेम कोइक मनुष्य थान्पना कोठारमाथी घj घणु धान्य फाढतो जाय अने तैमा अल्प अल्प नाखतो जाय तो केटलेक काळे ते धान्यनो कोठार अल्प धान्य बाकी रहेलो ज थइ जाप छे. ते प्रमाणे जीव पण घणा कर्मनी निजरा करतो अने अल्प अल्प कर्म बांधतो केटलेक फाळे ते जीव यथाप्रवृत्त करणको निश्य मामता पर जायके ।। ५.४॥६०५ ॥६०६॥
प्रश्न-ययामवृत्तकरण तो अनाभोग (प्रगट उपयोग रहिन) रूप ले नो अनाभोगथी पाणीओने कर्मनो क्षय केवी रीते होय ? ॥६०६ ।।
उत्तर-जेम पर्वतपरथी पडती नदीमा रहेका पथरा परस्पर घसावावढे ज्ञान रहित छतां पण स्वभावयीज विचित्र पकारनी आकृतियों वाला यह जाय छे, ॥ १०८ ॥ तेम अनाभोगरूप यथाप्रवृत्त करणथी पण जीवो अल्प कर्मवाळा याय छे. ते दरम्पानमां ॥६०९॥ काष्ठ वगैरेनी जवरी गांठ सरखी अति चौकण एवी उत्कृष्ट राग द्वेषना परिणामरूप ग्रंथी दुखे करीने मेदी शफाप एची (माप्त थाय छे) ॥ ६१० ॥ फर्य छ के "१ मिथ्यात्व-९ नो कषाय-अने ४ कषाय ए प्रमाणे श्रीजिनेश्वरोए आगममा १४ प्रकारनो अभ्यनार ग्रंथी कहेलो छे" ॥११॥ पूर्व कहेली (पत्यासंख्येयभागन्यून १ को० को० सा०) स्थिनिवाळो कर्मयुक्त केटलाएक जीवो ययामवृत्तकरणयी ग्रंथीनी नजीक आवे के (एटले ग्रंधीमेद फ्रियानी नजीक आवे छे) ॥ १२ ॥
प्रागुक्तरूपस्थितिककर्माणः केऽपि देहिनः । यथाप्रवृत्तकरणाद, ग्रन्थेरभ्यर्णमियूति ॥ ६१२ ॥ एतावञ्च प्राप्तपूर्वा, अभव्या अप्यनन्तशः । नत्वीशन्ते अन्थिमेनमेते भेक्षु कदापि हि ॥६१३ ॥ श्रुतसामायिकस्य स्याल्लाभ: केपाश्चिदत्र च । शेषाणां सामायिकानां, लाभस्त्वेषां न सम्भवेत् ॥ ६१४ ॥ तथोक्त-"तित्थंकराइपू, दहणऽपणेण वावि कजेणं । सुअ