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॥ श्रीलोकमकाशे प्रथमः सर्गः ॥
(५०) ( संख्यातमा) गणाती नंधी. ॥ १२७ ।। तथा जे उत्कृष्ट संख्यात ले ते तो विवेकी पुरुषोए आगळ कईवाला चार पल्यादिकना उपायबडे सरसत्र राशिना प्रमाणयी जाणवू. ॥१९८॥ ते आ प्रमाणे-(संख्यातादिभेद कोष्टक ! १ जघल संख्यास
| १२ उत्कृष्ट असंख्यान अमरख्यान २ मध्यम संख्यान
१३ जया प्रत्येक अनन्त ३ उत्कृष्ट संख्यान
१४ मध्यम प्रत्येक अनन्त ४ जघ० प्रत्येक असंख्यात १५ उत्कृष्ट प्रत्येक अनन्न ५ मध्यम प्रत्येक असंख्यात १६ जघ० युक्न अनन्न ६उत्कृष्ट प्रत्येक असंख्यात
१७ मध्यम युक्त अनन्त ७ जघ० युवत असंख्यात
१८ अकृष्ट युक्त अनन्त ८ मध्यम युक्न अमंख्यान ९ उत्कृष्ट युक्त असंख्यान
१९ जप. अनन्तानन्त १० जघा असंख्यात असंख्यान
२० मध्यम अनन्नानन्त ११ मध्यम असंख्यात असंख्यान २१ उत्कृष्ट अनन्ताअनन्न
जंबूद्वीपसमायाम-विष्कभपरिवेषकाः । सहस्रयोजनोहे. धाः, पल्याश्चत्वार ईरिताः ॥ १२९ ॥ उच्चया योजनान्यष्टौ, जगत्या ते विराजिताः। जगत्युपरि च क्रोश-द्वयोच्चवेदिकांचिताः ॥१३०॥ दिदृक्षवो हीपवाधीन् , स्वीकृतोद्ग्रीविका इव । ध्यायंतो ज्येष्टसंख्यातं, योगपट्टभृतोऽथवा ॥ १३१ । त्रिभिविशेषकम् ॥आयोऽनवस्थिताख्यः स्या-च्छलाकाख्यो द्वितीयकः । तृतीयः प्रतिशलाक-स्तुर्यों महाशलाककः ॥ १३२ ॥ आवेदि
१ प घटादि वस्तु देखता आ पक घट के पम नहिं, पण आ घट मं. पत्रो एकाधिषिशेषण रहित घोध थाय छे. तेथी. अथवा आपका लेवाना व्यत्रहारमा पक प्रस्तुनी गणत्री थती नथी माटे, अथवा अति अल्पसंख्या हो. घाथी पकनी संख्या संख्या तरीके ( संख्यातमा) गणाती मधी ( इति ४ थे कर्म ग्रन्थ टीका ). घळी अंमधेने थे पण आदि आगळनी सरूयाये गुपायाशी चार, छ आदि संख्यावृद्धि याय छे, तेम पकने पके गुणवायी अगर थे, त्रण आदिनै एके गुणवायो पक, वे प्रण आदि संख्यामां पधारो थनो नपो, विगेरे अनेक कारणोथी पक मठ्या संख्यातानी गणत्रोमां गणातीमधी.