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________________ 2 (५१२) ॥ उपशान्तमोगुणस्थानसह उपशमश्रेणिनिरूपणम् ॥ (द्वार छे ते जीव प्रथम समवेज बन्धनादि सर्व करणो पर्वतवेि छे. ॥ १० ॥ कारण के पूर्वे वांधेला आयुष्यवाळो जो अहिं श्रेणिमां वर्तती (८- ९-१०-११ मे ) जो मरण पामे तो निश्वये अनुत्तर देवमाज उत्पन्न थाय. ॥। ११॥ महाभाष्यवृत्तिमां "जो जीवेश्रेणि अंगीकार करी होय, ते जीव - franti कोइपण गुणस्थानमा ( ८- ९-१० मां ) वर्त्तनो अथवा उपशान्तमोहवाको (११मां) थड़ने जो काळ करे तो निश्वयथी अनुत्तरदेवमांज उत्पन्न थाय. " ( अने श्रेणिधी पडेलानो काळ कर्ये छते कोइ नियम नथी, तेने जुदा जुदा अध्यसायो थवाथी जुदीजुदी गतिओनो संभव होय छे. विशेषाः भाष्यगाथा १३०४ नी टीका) आ गुणस्थाननी जघन्यस्थिति ? समयनी कही छे, अने ते स्थिति आयुष्यनोक्षयत अनुत्तरे जाय त्यारंज (१ समय जघन्यस्थिति अन्यथा अन्तर्मुहूर्त्तन होय) जाणवी || १२ || एक जीव एक भवमां वे बार उपशमश्रेणि करें अने आखा संसारमां बसतो सर्व मलीने चार बार उपशमश्रेणि करे || १३|| अहिं सिद्धांतकारने मते एक मां क्षपकश्रेणि अने उपशमश्रेणिमांनी एकज श्रेणि करवानी गुणस्थानके ते सर्व प्रवर्त ले (आरम्भ कराय ले) पढतो छतो यावत् छठ्ठा सुधी पढे, कोष तेथी पण नीचे वे गुणस्थानक सुधी आवे, यात कोइ सास्वादममाय पण पाये है. अने मिध्यात्वे जाय छे. बळी जे भष क्षये पड़े छे से प्रथम समयेज स बन्धनादिकरणाने प्रवर्तावे उत्कर्षथो एकभवमां उपशमणि वे धार करे छे. जे बेवार उपशमणि करे तेने ने भषमां क्षपकश्रेणि याय नहि, अने जे एकबार उपशमश्रेणि करे मेने अपकश्रेणि थाय पण खरो तेम कामप्रथिकोनो अभिप्राय छे छे - "क्षां दुबे वारे उयसममेदि पडिवरजर तस्स मियमा संमि भवे बगसेदी नत्यि, जो पचसि उपसमसेठी पडिवजा तस खगदी डोज वित्ति सिद्धान्तना अभिप्राये तो एक भवमां एक श्रेणि अङ्गीकार करे पटले के उपशम श्रेणि करणार ते भवमां श्रपश्रेणि करे नहि के मोटोपशम एकस्मिन्भवे हि म्याद सन्ततः । यस्तिन्भये तृपशमः क्षय मोहस्य तत्र न || १३ प्रमाणे कां सविस्तर उपशमश्रेणिनुं स्वरूप कयुं. विशेषार्थिये कम्मपयडी टीका पश्च संग्रह टोका त्रिगरे ग्रथो अब ठोकवा. १ अद्राक्षयची पद्धत १० मे ९ मे इत्यादिके आवे तो ज्यां नेत्री रोते धादिविच्छेद कय होय त्यां तेषी रीत बंधादि पुनः प्रचर्ता अनं भवनथथी अनुत्तरां जतां १२मामांध शोध थेज गुणस्थाने अवेलो होवाथी ते गुणस्थानने योग्य वंषावि सर्च कियाओ एक साथ करवा भांडे २ उपशमश्रेणिए चढतो जीव पण ८-९-१२-२१ मे मरण पामे अने उपशमश्रेणिधी पडतो शीघ्र पण चार स्थाने मरण पामी अनुतरमां जाय.
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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