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________________ २ ) ॥श्रीलोकमकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २१७) (४६७) दर्शनवाला कया छ, अने तेथी असंख्यगुणा चक्षुर्दनिवाळा कसा के ३।। ६ ।। तेथी अनंतगुणा केवळ दर्शनवाया, अने तेथी पण अन्नगुणा अधिक अचक्षुदर्शनवाला जीवो कया छे. ॥ ६८ ॥ चक्षुदर्शननो फाळ जघन्यथी अन्तर्मु०, अने उकृत्यो साधिक १००० ( हजार ) सागरोपम ॥ ६९ ।। अचक्षुर्दशननो काळ अभव्य जीवनी अपेक्षाए अनादि अनन्त, अने मोक्षे जनारा भव्य जीवोनी अपेक्षाए अनादि सान्त जाणवो ॥७॥ अवधिदर्शननो काळ जघ० ? समय छे, अने उत्कृष्टथी साधिक १३२ (-६६-६६) सागरोपम मानेला २.७१|| शंका-अरविज्ञाननो काळ उत्कृष्टथी ६६ सागर छे तो अवधिदर्शननो काळ तेटलो (१३२ सा०) केम घटी शके ? उत्तर-अवधिदर्शन ते (सिद्धान्ताभिप्राये ) अवधिज्ञानमा अने विभक्तज्ञानमां पण रहेल, नेथी बन्नेना सहभावथी अवधिदर्शननो कहेलो नेटलो काळ युक्त ज छे. अहि घणु कहेवानुं छे ते प्रज्ञापना मूत्रनी १८ मा पदनी वृत्तिमाथी जाणवू. । ७२शा केवनदर्शननो काळ सादि-अनन्त , ए चारे दर्शनमा अचक्षुदर्शन विना कोइपण दर्शनने अनादि पणुं नथी ॥७॥ ए प्रमाणे दलदार स्वरुप मा । इलि दर्शजहारम् ॥ ॥ दशेनद्वारयन्त्रकम् ॥ दर्शन | अल्पपत्य | स्थिति समकाले ज्ञान अवधिदर्शनी असत्यगुण.(२) अघ-अन्तर्मुहत्त. उ.-साधिक २००० सागर ५ भतिभ०००.२मा ०६००वि०मति. मृतमान. ४मश्रू: अब म अमन-६० | भु०० मन० अचक्षुर्दर्शना केवलवर्शनथी अनन्तगुण.(४) अभय ने-अमादि अनन्त भव्यने-अनादि साम्त अवधि दर्शन मयी अल्प जघर-1 ममय उ-साधिक वे छासह [१३२] सागर १ मति-भूत० अब.. २ मति. अत० अ०म) (मतान्तरेण मतिभ्रता अ- वि०) केवलदर्शन चक्षुदर्शनयी - अनन्तगुण. (३ सादि अनन्न १ कंवलज्ञान १ प्रथम ६६ सागरोपम सुधी क्षयोपशम सम्यक्त्व पूर्वक अधिज्ञान का यम रहोने अन्तर्मुहूर्त मिश्रसम्यकत्व पामतां विभङ्गशाम गणाय, ने पुनः ६६
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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