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॥ लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः ॥ (सा. ३६) (१०५) पमाहिकांत-क्षण एव स सिद्धयति । उद्गच्छन्नस्पृशन्नत्या, ह्यचिन्त्या शक्तिरात्मनः ॥१५॥ अत्र च अस्पृशंती सिद्धयंतरामप्रदेशान् गतियस्य सोऽस्पृशवगतिः, अंतरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः, इभ्यते च तत्रैक एव समयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्याऽभावादन्तरालप्रदेशानामसंस्पर्शनमित्यौपपातिक-- वृत्तौ [सा० ३४] । अबगाढप्रदेशेभ्योऽपराकाशप्रदेशांस्त्वस्पृशन् गच्छतीति महाभाष्यवृत्तौ (सा०३५) । यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्ध्वमप्यवगाहमानो गच्छत्तीति पश्वसंग्रहवृत्तौ (सा० ३६)। तदत्र तत्त्वं केवलिगम्यम् ।
अर्थ-पां पण मोक्षे जना एवा मुनि महात्मानो आत्मा शरीरस्पी पिंजरामांथी सर्वोगथी निकळे छे ॥२४॥ श्री आणांगजीना पांचमा ठाणामां कयु छ के"जीयने (मायो) निकळबानो मार्ग ५ प्रकारनो कलो के ते मा प्रमाणेपगांधी-सापळगांधी-छातीमांधी--मस्तकमांथी--अने सर्व अंगोमाथी. लेमा पगयी निकळतो जीव नरकगामी पाय, सापळयी निकळनारो तिर्यंचगतिमा जनारो पाय, छानीमांथी निकळतो जीव पनुष्य गतिमां जाय, अने मायापांधी नीकळनारो जीव देवगतिमा जनारो होय, अने सर्वांगी निफळनारो जीर मोक्षमा अनारो को छे. " (सिद्धिगतिमां कई गनिए जीप जाय ? ते कहे के. )
जे समये भवोपनाही ( आखा भवसुधी--संसारना अंतमुधी रहेनारी अ. यानी ) कमैनो अन्न याय छे तेन समये अस्पर्शगनिए उर्वगमन करता केवली भगवान् सिरि पद पामे छे. अहि उववाह सूत्रनी वृत्तिमा कार्यु के के.-"जेनी गति ( मनुष्य क्षेत्र अने ) मोक्षनी रचमा रहेला आकाश पदेशोने पाविनानी होय ते जीष अस्पर्शगनिवाळो कवाय, कारण के बच्चेना प्रवेषो स्पर्षे छते एक समयमा सिधि न होय, अने सिरिगतिनी मासिनो एकम समय कहेलो के माटे बचमा पीजो समय नहीं थवादी वच्नेना आकाशप्रदेशोनी अस्प
नाम होय है" तथा महाभाष्य वृत्तिा कर ले के -"अगाहित आकाश. प्रदेशो मियायना पीजा पाकासप्रदेशोने स्पश्य बिनाज जाय छे" नया पत्रसंग्रहपत्तिमा के के " जेटला आकाशमदेशीमा अवगाह (जीव भवगाहेलो) के