SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०) || श्री लोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः ॥ (सा० २३८ (५५३) उत्पत्ति थती होत तो सत्य छे, परन्तु आवीरीते अतिपतित सम्यक्त्ववाळो अवितभावमा रहेवा संभवज नथो, अथवा बीजा कोइपण कारणनी अपेक्षाये बहुश्रुतभगवन्तोए साधिक ३३ सागरोपमज काल को ले तत्र श्रीकेचलिमगवन्तो जाणे. नाना जीवापेक्षया अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान सर्वदा लभ्य होय छे, देव तिर्यञ्च अने नारक गति ए त्रणेसां प्रत्येके अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाळा असंख्यात जीवो होय छे, अने मनुष्यगतिमां संख्याता जीवो होय के चारे गतिनी अपेक्षाये समुदित विचारणाये क्षेत्रपल्पोपमना असंख्यातमा भागमां आवेला प्रदेशराशि प्रमाण अविरत सम्यग्दृष्टिजीवो सर्वदा विद्यमान होय छे, तेथी अनादि अनन्तकाल चोथा गुणस्थानननी जाणवी. ( ५ ) पचमुं देशचिरतगुणस्थान पण उपरनी माफक ऋण प्रकारना जीवोने होय छे, सामान्यथी देशविरतगुणस्थान एक जीवापेक्षाये जघन्यधी अन्तर्मुहूर्त रहे है, अन्तर्मुहूर्त बाद पतित थाय, मरण धाय अगर सर्वविरत थाय. उत्कर्ष थी देशोनपूर्वकोटिसृधी देशविरसगुणस्थान रहे छे से आ प्रमाणे- पूर्वकोटि आयुष्यवाळो कोइ जीव साधिक आठ वर्ष सुधी अविरत रही यावज्जीव देशबिरfa पाळे तेने साधिक आठवर्ष न्यून पूर्वकोटि काल - देशविरतगुणस्याननो जाणको, अनेक जीवोनी अपेक्षाये देशविरतगुणस्थान सर्वदा विद्यमान होय छे, देशविरतजीवो मनुष्यगतिमां संख्याता होय अने तियंचगतिमां असंख्याता होय, क्षेत्रपत्योपमना असंख्यातमा भागमां आवेल प्रदेशराशिममाण असंख्याता देशविरतगुणस्थानवाला जीवो सवाकाल होवाथी अनादि अनन्तकाल जाणवो. (६-७) प्रमसंपतगुणस्थान अने सातमुं अप्रमत्त संयतगुणस्थान ते वेज एकजीवनी अपेक्षाये जघन्यथी एकसमय होय छे, आयुष्यना चरमसमये प्रमत्तसंयतपणुं अथवा अप्रमत्तसंयतपणुं पामी मरण पामी अविरत थाय तेथी १ समय. उत्कर्षधी ते वेड अन्तर्मुहुर्तममाण होय छे से आ प्रमाणे- प्रमत्तसंयतपणे अन्तर्मुहूर्त रही संक्लिश्यमान अध्यवसाये देशविरतादि थाय. अथवा मरण पाये अथवा विशुद्धयमान अध्यवसाये अप्रमत्तसंयत थाय, तेज प्रमाणे अप्रमत्तसंयत अवस्थामां उत्कर्षथी अन्तर्मुहुर्त रहे त्यारबाद ममत्त संयतपणुं अथवा श्रेणिए आरोहण करें अगर देशविरस्यादि भाव पाये. शंका -- प्रमत्ससंयतभाव अने अप्रमतसंयतभाव अन्तर्मुहूर्ते अन्तर्मुहुर्ते परावर्तमान रहे हे पण वधारे काल रहेता नयी एम शाउपरथी जाण ? उत्तर - जे संक्लेशस्थानको मां वर्ततो ममत्तपणुं पाये अने जे विशुद्धि
SR No.090439
Book TitleLokprakash
Original Sutra AuthorVinayvijay
Author
PublisherSanghvi Seth Shri Nagindas Karamchand Ahmedabad
Publication Year
Total Pages629
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy